Friday, July 13, 2012

पिता ने ये क्या कर डाला ??

सर कटी लाश 


पुलिस की गिरफ्त में हत्यारा पिता औगड़ सिंह 
ये हमारे राजसमन्द जिले के चारभुजा  थाने का मामला है जहाँ एक बाप "ओघड सिंह" ने अपनी बेटी "मीना कुंवर" का सर तलवार से कलम कर दिया क्योंकि वो उसके "चाल चलन" से खुश नहीं था. उसने पहले बेटी का सर कलम किया फिर सर को लेकर पूरे गाँव में घूमा कि लो अपनी "मीना बाई सा' " से मिल लो. बाद में थाने में जाकर उसने सरेंडर कर दिया. घटना कोई बीस दिन पुरानी है. 
बाप का पक्ष: बेटी शादी के बाद भी अपने पति के साथ नहीं रह रही थी उसके उदयपुर में दो युवकों से सम्बन्ध थे. उसको एक आदमी के साथ संदिग्दावस्था में पकड़ कर उसी थाने में लाया गया जहाँ उसका ससुर कांस्टेबल था. थाने से छुडाकर जब उसे गाँव लाया तो वो उलटे बाप पर ही चिल्लाने लगी. तैश में आकर मैंने ये कृत्य कर दिया.
समाज दोनों पक्षों में देख रहा है इस कृत्य को. कुछ कह रहे है, बाप ने अच्छी सज़ा दी तो कुछ का कहना है, ये कोई रास्ता नहीं था.. चाहते तो हमेशा के लिए बेटी से रिश्ता ख़तम कर सकते थे. एनजीओ के लोगो का कहना है कि जितना काम महिला उत्थान को लेकर जिले में हुआ, इस एक घटना ने उसे दस साल पीछे धकेल दिया. आप क्या सोचते है ?
सवाल गंभीर है. 
आज ये खबर और गंभीर बन जाती है जहाँ एक तरफ गुवाहाटी में एक लड़की के कपडे सारे राह फाड़ दिए जाते है... जयपुर में चलती ट्रेन से एक नवजात बच्ची को फेंक दिया जाता है... उत्तर प्रदेश में पंचायत चालीस साल से कम आयु की महिलाओं को मोबाइल फोन रखने और अकेले घर से बाहर निकलने पर पाबंदी लगता देती है... क्या हम सच में बाईसवी सदी में ही जी रहे है ???


Friday, June 22, 2012

कश्मीर: दोष किसका ??



डल झील या रेजीडेंसी रोड के श्रीनगर और धारा १४४ से ग्रस्त-त्रस्त डाउन टाउन पुराने इलाके के श्रीनगर में ज़मीं-आसमान का अंतर है. ट्रेफिक दोनों जगह बेतरतीब है.दिलों के हाल दोनों जगह "कन्फ्यूज्ड" है. एक जगह बार बार के शहर-बंद से परेशान मन की "पर्यटन" से कमाई की जद्दोजहद है तो दूसरी जगह "आज़ाद" होने की तमन्ना.
दोनों श्रीनगर में बहुत अंतर है. चुनी हुई सरकार और हुर्रियत के धड़े सब के सब गालियाँ खाते मिलते है. किसी को गुस्सा है कि ओमर अब्दुल्लाह वजीर बनते ही शंकराचार्य पहले क्यों गया.. क्या किसी इस्लाम के बंदे को बुत के सामने सर झुकाने की इजाज़त है? तो कोई इस बात से खफा है कि मीरवाइज का बेटा इंग्लिस्तान में पढाई क्यों कर रहा है जबकि यहाँ के लड़के बेरोजगार है, अनपढ़ है. सभी के अपने किस्से है. अपने दुःख है. हिंदुस्तान-पाकिस्तान और राजनीति से सभी बुरी तरह से खफा है. तिरंगा उन्हें अच्छा नहीं लगता,क्योंकि उसमे सियासत की बू आती है. शेरे कश्मीर शेख अब्दुल्लाह का दिया झंडा भी पसंद नहीं.. क्योंकि उसी के कारन, कहते है, कश्मीर समस्या पैदा हुई. पाकिस्तान के हरे झंडे से परहेज़ नहीं, क्योंकि,कश्मीरी को लगता है, वो इस्लाम की रहनुमाई करता है. पर पाकिस्तान में शामिल होने की बात पर गुस्सा भी.. "अजी मियां, तबाह मुल्क में कौन शामिल होना चाहता है, हम तो आज़ादी चाहते है!"

अपनी जम्मू-कश्मीर यात्रा में चौथे दिन अनंतनाग (यहाँ के बाशिंदे इसे इस्लामाबाद कहते है) होते हुए श्रीनगर पहुंचा. तीसरी बार यहाँ आना हुआ था. ये शहर अपने श्राइन और बगीचों के लिए तो प्रसिद्द रहा है. इस बार श्रीनगर बहुत बदला बदला सा लगा. दीवारों पर जहाँ पहले "इंडिया गो बेक, इन्डियन आर्मी गो बेक" जैसे नारे लिखे नज़र आते थे, वैसा इस बार कुछ नहीं दिखा. नए शहर में से आर्मी को लगभग गायब पाकर आश्चर्य का ठिकाना ना रहा. खुशी भी हुई. क्योंकि पिछले कुछ महीनो से पत्थरबाज़ी की घटनाओं में भी कमी आई थी. जल्द से जल्द शहर घूमने की तमन्ना थी. होटल पहुंचकर हाथ-मुह धोकर निचे आया तो एक बुज़ुर्ग टेबल पर नाश्ता लगाते मिले. " जनाब ! आप कश्मीरी नाश्ता पसंद करेंगे या पंजाबी परांठे, ऑमलेट पेश करू ?" मैं बिना सोचे समझे सवाल दाग देता हूँ  " जनाब ! आपको किसकी गलती लगती है, आम कश्मीरी की या आर्मी की ?" वो अचानक से चौंक जाते है. "आप हिन्दुस्तानी मिडिया से लगते है ?" "जी नहीं, मैं आप ही की तरह आम हिन्दुस्तानी हूँ" मैं उन्हें फिर से कुरेदने की कोशिश करता हूँ. वो मेरा इशारा समझ जाते है. "किसकी गलती बयां करें, यहाँ तो सब के सब कश्मीर को जिंदा निगलने पर आमादा है. अब तो आम कश्मीरी भी सियासत करने लगा है. आज़ादी किसे प्यारी नहीं लगती, पर लगता नहीं कि अब वो दिन आएगा." "अपने ही मुल्क से कैसी आज़ादी ...? आज़ाद होकर आप क्या पा लीजियेगा...? क्या सबूत है कि आर्मी के जाते ही पाकिस्तानी फौज यहाँ नहीं आएगी ?" इतने सारे सवालात सुनकर बुज़ुर्ग मुझे शाम के बाद मिलने की बात कहकर चले जाते है.

मैं डल झील के किनारे खड़ा हूँ. सरकारी बोर्ड लगा है, एक घंटा शिकारे में घूमने के ३०० रुपये. ज्यादा मांगने पर शिकायत करने हेतु फोन नम्बर और इमेल पता भी लिखा है. मैं एक शिकारे के मालिक से बात करता हू. वो बीस मिनिट के पांच सौ मांगता है. मैं उसे शिकायत करने की धमकी देता हूँ. वो हंस देता है. धमकी का कोई असर नहीं. तीन सौ में बीस मिनिट फ़ाइनल. उसका नाम नौशाद है.उम्र तक़रीबन 45-50 के आस पास. वो मुझे डल झील की खासियत बता रहा है. फ्लोटिंग शोपिंग करवा रहा है. कमाल के बगीचे दिखा रहा है. चार चिनार (अब तीन बचे है) की खासियत से रु-ब-रु करवा रहा है. सैकड़ों की संख्या में लगी हॉउस बोट्स की खासियत भी उसे ज़बानी याद है. झील से ही हजरत बल और शंकराचार्य के दर्शन भी करवा दिए. मुझे उस से दोस्ती करने की जल्दी है. दोस्ती होते ही मेरे सवाल फिर से बाहर...
"जनाब! गलती आवाम और आर्मी, दोनों की बराबर है.आर्मी इन्हें चैन से रहने नहीं देती और ये आर्मी को गाली दिए बिना सोते नहीं. रही आज़ादी की बात तो भूल जाइये. आपको क्या लगता है.. इंडिया इतनी आसानी से कश्मीर को छोड़ देगा ? कभी नहीं. ये जन्नत है और जन्नत किसे अच्छी नहीं लगती. कुदरती हिफाज़त बक्शी है कश्मीर को. इन्ही पहाड़ों से  इंडिया को चाइना और पाकिस्तान से हिफाज़त मिलती है. हमारी किस्मत इंडिया के साथ ही लिखी है 'अब'.. "
मैं "अब" सुनकर अवाक् हूँ. मैं नौशाद को दूसरी तरीके से कुरेदता हूँ. "आपका दिल क्या कहता है, आज़ाद होकर कितने दिन जिंदा रह पाएंगे?" वो अपना चप्पू धीमा करके मुझे कहते है " एक हॉउस बोट को बनने में एक करोड का खर्चा आता है" ये मेरे सवाल का जवाब नहीं था....

लाल चौक में आज "कश्मीर बंद" है. कुछ साल पहले आज ही के दिन कुछ कश्मीरी लड़के आर्मी के हाथो "शहीद" (?) कर दिए गए थे. आज उनकी बरसी है. लकड़ी के बने घर और दुकान बंद है. एयरटेल का विज्ञापन शटर पर लिखा है. आर्मी यहाँ अच्छी खासी तादात में है. "सुरजीत कुमार" नाम के एक सिपाही के पास जाता हूँ. उसके पास शानदार एके ४७ है. "सर, ये रशिया में बनती है या चाइना में ?" मेरा इशारा बन्दुक की तरफ है. "हमारी वाली मेड इन इंडिया " वो हंस देता है. हमारी वाली से मतलब ? "दादा, किस चैनल से हो ?" मैं अपना परिचय देता हूँ.  सुरजीत कुमार अस्सी के दशक में ले जाते है. "तब लदाख के रस्ते चाइना से और एलओसी के उस पार से घाटी में एके ४७ सप्लाई की जाती थी. हमारे आर्मी के लोग कश्मीरियों को पांच पांच हज़ार देकर इनसे गन और मेगजीन अपने गांव ले जाते थे. इतनी सस्ती तो पूरे वर्ल्ड में कहीं ना मिले. और ये कौनसी खरीदकर लाते थे. इनका ताऊ फ्री में पहुंचाता था. "
"इनके लिए आज़ादी के क्या मायने है ?" मेरा अगला प्रश्न. "इनके दिमाग का फितूर है. हुर्रियत को पैसा अरब से आ रहा है. और यहाँ की सरकार को दिल्ली से. फ़ोकट का खाने की आदत दोनों को लग गयी है. जनता को "आज़ादी" का लोलीपोप पकड़ा रखा है. मनु भाई ! गधे के आगे गाजर लटकाने वाली कहानी सुनी है ना आपने ! बस वो गाज़र लटकी हुई है कश्मीरी के आगे. देख सब रहे है, खा सकते है नहीं. "

दोपहर हो चुकी है. लंच का वक़्त है. मेरा अगला ठिकाना रेजीडेंसी रोड स्थित "मुग़ल दरबार" रेस्टोरेंट. कश्मीरी खाने के बारे में बहुत सुना है. एक पकी दाढ़ी के इंसान "फाहरुख" मेरा इस्तकबाल करते है. बहुत एहतराम के साथ उनके "सलाम वालेकुम " का जवाब देता हूँ. वे मुझे हर एक डिश के बारे में तफसील से बताते जाते है. हर टेबल पर भीड़ है, फिर भी वे मुझे इतना वक़्त क्यों दे रहे है ? "आप हमारे मेहमान है, कश्मीर के जायके से आपको रु-बरु करवाना पेशा है हमारा." मुझे उनकी स्माइल बहुत पसंद आती है. वाजवान, रोगनजोश, गुश्ताबा, रिसदा, वजा मटन, कश्मीरी पुलाव... बहुत कुछ. इसमें कश्मीरी पुलाव को छोडकर एक भी ऐसा व्यंजन नहीं, जो पहले कभी चखा हो. ला-जवाब, लजीज.. बेहतरीन. "रिसदा की मटन बाल्स को पूरी पूरी रात पकाया जाता है, तब उसमे कश्मीरियत की महक आती है." फाहरुख बताते जा रहे थे. "कश्मीरियत के महक और कहाँ मिलेगी जनाब?" मेरा प्रश्न सुनकर वो चौंक जाते है. फाहरुख ने साठ से ज्यादा बसंत देखे होंगे. "कश्मीरियत की महक तो कब की खो चुकी मियाँ. वो दिन थे जब हमारी बहन-बेटियां आराम से सड़कों पर घूम सकती थी. अब तो ये आर्मी वाले हमारे बच्चो को भी नहीं बख्शते. पत्थर बाज़ी कहाँ हो रही होती है और ये हमारे घर से लडको को उठा के ले जाते है. मेरे छोटे भाई के बच्चे के साथ बहुत बेशर्मी भरा काम किया आर्मी ने. " मैं सिहर उठता हूँ. वाजवान, रोगनजोश का स्वाद काफूर हो जाता है.

अपने होटल की लॉबी में चहल कदमी कर रहा हूँ. कल सुबह द्रास जाना है. उमर नाम का बन्दा रिसेप्शन की कुर्सी पर बैठा है. अच्छा नाम है भाई तुम्हारा. एक क्रिकेटर और एक मुख्यमंत्री,तुम्हारे नाम के. वो शुक्रिया अदा करता है. मैं उसकी एज्युकेशन के बारे में पूछता हूँ. पता चलता है कि वो हाई स्कूल से ज्यादा नहीं पढ़ सका. हिंदी अच्छे से जानता है. लहजा कश्मीरी है. उस से दोस्ती बढाता हूँ. वो मुझे हर बगीचे, उसके "मेडिकेटेड" पानी... सब बताता चला जाता है. पर मेरा मन कहाँ मानने वाला है. " उमर ! क्या तुमने कभी आर्मी पर पत्थर फेंके है ?" मैं सवाल दाग देता हूँ.  वो बहुत बेबाकी से जवाब देता है. "बिलकुल फेंके है मनु भाई." ये जब मा-बहन की गाली देते है तो और क्या करें. " उमर आर्मी को रोबोट कहता है. क्योंकि पत्थर बाजी से बचने के लिए आर्मी के जवान कुछ ऐसा ही पहनकर आते है. "यार राह चलते तो वो गाली नहीं देते होंगे. कुछ तो तुम भी करते होंगे. " उमर का जवाब- "इन्होने क्या क्या नहीं किया.. अगर गिनाने बैठू तो वक़्त का पता नहीं चलेगा.." उमर की आँखों में इतना गुस्सा देखकर मैं बात पलट देता हूँ. पर वो कहाँ मानने वाला था. "दो साल पहले हिन्दुस्तानी मिडिया बता रहा था कि हमको पत्थर मारने के लिए पैसे दिए जाते है. ये बात सरासर गलत है. कौन सौ-पचास के लिए आर्मी की गोली खाने आगे जायेगा ? हम उन पर पत्थर मारते है क्योंकि वो हमारी बहन बेटियों पर गलत निगाह डालते है. मुझे बात पचती नहीं. उमर बोलता जाता है. अमर नाथ में ये शिवसेना वाले ज़मीन लेकर वहाँ मंदिर बनाना चाहते है. क्या आप अपने घर में मंदिर बनाने देंगे?(उसका आशय अमरनाथ श्राइन बोर्ड के उस फैसले की ओर था, जहाँ बालताल में पक्की धर्मशाला निर्माण प्रस्तावित था)मुझे उमर की बातों में सियासत की बू आती है. उमर की बात जारी रहती है. "मैंने नई पल्सर बाइक खरीदी. मैं डाउन टाउन में रहता हूँ. आर्मी मुझे घर से उठाकर ले गयी. बोली कि कल बाइक से जाते वक़्त मैंने आर्मी को गाली दी. मेरी बाइक का हेड लाईट कांच फोड दिया. मुझे मारा सो अलग. तब से घर पर कम ही जाना होता है. एक महीने से बाइक को हाथ भी नहीं लगाया. यही होटल में रहता हूँ. यहाँ कम से कम आर्मी तो नहीं है. वहाँ पुराने शहर में तो सू सू करने जाओ तो भी आर्मी चेक करती है. "
"उमर ! अब तो पत्थर नहीं मारते ना ?" मेरे सवाल जारी रहते है. "कुछ दिन पहले दोस्त की शादी थी. पटाखे फोड रहे थे कि पुलिस आ गयी और दो दोस्तों को उठाकर ले गयी. दोस्त की शादी का मज़ा खतम हो गया. पहले सरकार ने कहा कि सबको पुलिस में नौकरी देंगे, पत्थर मारना छोड़ दो. जब लोग सब खानापूर्ति पूरी करके इंटर-व्यू  देने गए तो उनको बंद करके बहुत मारा. बोले, तुम ही हो पत्थर-बाज़ी करने वाले. "

मेरा मन भारी हो चला है. किस पर विश्वास करू और किस पर नहीं. समझ नहीं आ रहा. दोष भी दूँ तो किसे ? क्या इसी जगह के लिए जहाँगीर से कहा था कि यही स्वर्ग है ?क्या इसे स्वर्ग कहते है ?क्या सारी गलती सिर्फ घाटी में रहने वालो की है ? क्या दिल्ली पाक साफ़ है ? या हुर्रियत और स्थानीय राजनितिक दलों ने सियासत से आगे कदम नहीं बढ़ाया ? आर्मी वाले क्या सच में अपनी भड़ास "निर्दोष" लोगो पर निकालते है ? क्या मिडिया बायस्ड नहीं है ? सवाल बहुत है और समय कम.. कल द्रास में कारगिल वार मेमोरियल भी देखने जाना है और रात बहुत हो चुकी है. अब सब कुछ काले अँधेरे के भरोसे... कल का सवेरा होगा, तब तक के लिए शुभ रात्रि.शब्बा खैर .
(व्यक्तिगत आग्रह पर कुछेक पात्रों के नाम बदल दिए गए है )

Wednesday, May 30, 2012

ओम बन्ना का मंदिर,जहाँ बाइक की पूजा होती है


राजस्थान में लोक देवताओं की कमी नहीं. यहाँ पूर्वजों की जिस तरह से पूजा होती है, उसका कहीं और कोई उदहारण नहीं. नाग की पूजा भी यहाँ देवता के रूप में होती है. लेकिन मोटर साइकल की पूजा शायद ही भारत में अन्य किसी स्थान पर की जाती हो. जोधपुर- पाली राष्ट्रीय राजमार्ग पर पाली से लगभग बीस किमी दूर एक स्थान है ओम बन्ना का थान (देवरा). यहाँ बुलेट बाइक की पूजा की जाती है.

मुख्य हाइवे के पास ही स्थित यह स्थान हाल ही के दिनों में बहुत चर्चित हुआ है. सड़क के किनारे जंगल में लगभग 20-25 प्रसाद व पूजा अर्चना के सामान से सजी दुकाने दिखाई देती है और साथ ही नजर आता है भीड़ से घिरा एक चबूतरा जिस पर ओम बन्ना की एक बड़ी सी फोटो और अखंड जलती ज्योत। चबूतरे के पास ही नजर आती है एक फूल मालाओं से लदी बुलेट मोटर साईकिल। यह वही स्थान है और वही मोटर साईकिल.

ओम बना अर्थात ओम सिंह राठौड़ पाली शहर के पास ही स्थित चोटिला गांव के ठाकुर जोग सिंह जी राठौड़ के पुत्र थे, जिनका इसी स्थान पर अपनी इसी बुलेट मोटर साईकिल पर जाते हुए 1988 में एक दुर्घटना में निधन हो गया था। कहा जाता है कि ओम सिंह राठौड़ की दुर्घटना में मृत्यु के बाद पुलिस ने अपनी कार्यवाही के तहत उनकी इस मोटर साईकिल को थाने लाकर बंद कर दिया लेकिन दूसरे दिन सुबह ही थाने से मोटर साईकिल गायब हो गई और तलाश करने पर मोटर साईकिल उसी दुर्घटना स्थल पर ही पाई गई। माना जाता है कि पुलिसकर्मी कई बार मोटर साईकिल को दुबारा थाने लाए किंतु हर बार सुबह मोटर साईकिल थाने से रात के समय गायब हो दुर्घटना स्थल पर ही अपने आप पहुँच जाती। आखिर पुलिस कर्मियों व ओम सिंह के पिता ने ओम सिंह की मृत आत्मा यही इच्छा समझ उस मोटर साईकिल को उसी पेड़ के पास रख दिया। यह भी कहा जाता है कि इसके बाद रात्रि में वाहन चालको को ओम सिंह अक्सर वाहनों को दुर्घटना से बचाने के उपाय करते व चालकों को रात्रि में दुर्घटना से सावधान करते दिखाई देने लगे। वे उस दुर्घटना संभावित जगह तक पहुँचने वाले वाहन को जबरदस्ती रोक देते या धीरे कर देते ताकि उनकी तरह कोई और वाहन चालक असामयिक मौत का शिकार न बने।

आज ये स्थान हर आने जाने वाले चालक को गाडी सड़क नियमों का पालन करते हुए चलाने की सीख देता है. और ये भी बताता है कि आस्था के पीछे कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता. बस मन है, जिसे देव स्वरुप मान ले तो बस मान ले ..

सो अगली बार अगर आप उदयपुर या अहमदाबाद से जोधपुर की तरफ जा रहे हो तो पाली शहर से लगभग बीस किमी आगे रोहट से पूर्व इस स्थान पर अपना शीश झुकना ना भूलें.

Thursday, March 29, 2012

जब जोधपुर नरेश पर पिस्टल तान दी सरदार ने

महाराणा भूपालसिंह थे राजस्थान के पहले महाराज प्रमुख

जब भारत राष्ट्र का  उदय हुआ, उस वक़्त राजस्थान में कुल २२ छोटी बड़ी देसी रियासतें थी. सभी का एकीकरण करना बहुत टेढ़ी खीर था. वजह- सभी रियासतों के राजाओं का मानना था कि उन्हें स्वतंत्र राज्य का दर्जा दिया जाये, क्योंकि उन्हें सदियों से शासन का अनुभव है. तब तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल और उनके सचिब वि.पी. मेनन की कार्य कुशलता से सभी का एकीकरण हो पाया.

प्रथम चरण (18 मार्च 1948)में धौलपुर, अलवर,भरतपुर और करौली रियासतों को मिलकर "मत्स्य संघ" का नाम दिया गया. दूसरे चरण (पच्चीस मार्च 1948) को स्वतंत्र देशी रियासतों कोटा, बूंदी, झालावाड, टौंक, डूंगरपुर, बांसवाडा, प्रतापगढ , किशनगढ और शाहपुरा को मिलकर राजस्थान संघ का नाम दिया गया. इसमें कोटा सबसे बड़ी रियासत थी. अजमेर मेरवाडा पहले ही ब्रिटिशों से भारत सरकार के पास आ चुकी थी.

तीसरा चरण में 18 अप्रेल 1948 को राजस्थान की तत्कालीन सबसे बड़ी रियासत मेवाड़ (उदयपुर) को राजस्थान संघ में शामिल करवाने को बूंदी के महाराव ने राज़ी कर लिया. महाराव बहादुर सिंह नहीं चाहते थें कि उन्हें अपने छोटे भाई महाराव भीमसिंह (कोटा के राजा) की राजप्रमुखता में काम करना पडे, मगर बडे राज्य की वजह से भीमसिंह को राजप्रमुख बनाना तत्कालीन भारत सरकार की मजबूरी थी। जब बात नहीं बनी तो बूंदी के महाराव बहादुर सिंह ने उदयपुर रियासत को पटाया और राजस्थान संघ में विलय के लिए राजी कर लिया। इसके पीछे मंशा यह थी कि बडी रियासत होने के कारण उदयपुर के महाराणा को राजप्रमुख बनाया जाएगा और बूंदी के महाराव बहादुर सिंह अपने छोटे भाई महाराव भीम सिंह के अधीन रहने की मजबूरी से बच जाएगे और इतिहास के पन्नों में यह दर्ज होने से बच जाएगा कि छोटे भाई के राज में बडे भाई ने काम किया। अठारह अप्रेल 1948 को राजस्थान के एकीकरण के तीसरे चरण में उदयपुर रियासत का राजस्थान संघ में विलय हुआ और इसका नया नाम हुआ 'संयुक्त राजस्थान संघ'। माणिक्य लाल वर्मा के नेतृत्व में बने इसके मंत्रिमंडल में उदयपुर के महाराणा भूपाल सिंह को राजप्रमुख बनाया गया, कोटा के महाराव भीमसिंह को वरिष्ठ उपराजप्रमुख बनाया गया। और कुछ इस तरह बूंदी के महाराजा की चाल भी सफल हो गयी।
चौथे चरण (30 मार्च 1949)में भारत सरकार ने अपना ध्यान देशी रियासतों जोधपुर , जयपुर, जैसलमेर और बीकानेर पर लगाया और इन्हें भी शामिल कर लिया और इस प्रकार "वृहद राजस्थान संघ" का निर्माण हुआ. तभी से इस दिवस को "राजस्थान दिवस" के नाम से मनाया जाने लगा. पांचवे और छठे चरण में क्रमशः मत्स्य संघ और सिरोही को राजस्थान में  विलय कर दिया गया.

जब जोधपुर नरेश पर पिस्टल तान दी सरदार ने-
घटना 1949 आरम्भ की है. तब तक जयपुर, जोधपुर को छोडकर बाकी रियासतें राजस्थान में या तो शामिल हो चुकी थी या हामी भर चुकी थी. बीकानेर और जैसलमेर रियासतें जोधपुर नरेश की हाँ पर टिकी हुई थी. जबकि जोधपुर नरेश महाराजा हनुवंत सिंह उस वक़्त जिन्ना के संपर्क में थे. जिन्ना ने हनुवंत सिंह को पाकिस्तान में शामिल होने पर पंजाब- मारवाड सूबे का प्रमुख बनाने का प्रलोभन दिया . जोधपुर से थार के रस्ते लाहोर तक एक रेल लाइन हुआ करती थी, जिस से सिंध और राजस्थान की रियासतों के बीच प्रमुख व्यापार हुआ करता था. जिन्ना ने आजीवन उस रेल लाइन पर जोधपुर के कब्ज़े का प्रलोभन भी  दिया. हनुवंत सिंह लगभग मान गए थे. तब सरदार पटेल जूनागढ़ (तत्कालीन बम्बई और वर्तमान में गुजरात) के मुस्लिम राजा को समझा रहे थे. जैसे ही उनके पास सुचना पहुंची, तत्काल सरदार पटेल हेलिकोप्टर से जोधपुर को रवाना हुए. रस्ते में सिरोही- आबू के पास उनका हेलिकोप्टर खराब हो गया,तो एक रात तक स्थानीय साधनों से सफर करते हुए तत्काल जोधपुर पहुंचे. हनुवंत सिंह सरदार को उम्मेद भवन में देख भौंचक्का रह गया. जब बात टेबल तक पहुंची तो हनुवंत सिंह ने सरदार को धमकाने के उद्देश्य से मेज पर ब्रिटिश पिस्टल रख दी. सरदार ने जोधपुर नरेश को मुस्लिम राष्ट्र में शामिल होने पर होने वाली सारी तकलीफों के बारे में बताया,पर हनुवंत सिंह नहीं माना. उलटे सरदार पर राठोडों को डराने का आरोप लगाकर आसपास बैठे सामंतों को उकसाने का कार्य भी किया.

एक बार स्थिति ऐसी आ गयी कि आख़िरकार सरदार ने पिस्टल उठा ली और हनुवंत की तरफ तानकर कहा कि राजस्थान में विलय पर हस्ताक्षर कीजिये नहीं तो आज हम दो सरदारों  में से एक सरदार नहीं बचेगा. सचिव मेनन सहित उपस्थित सभी सामंत डर गए. आख़िरकार अपनी ना चलने पर हनुवंत सिंह को हस्ताक्षर करने पड़े. और इस प्रकार जोधपुर सहित बीकानेर और जैसलमेर भी राजस्थान में शामिल हो गए. इस घटना के कारन सरदार पटेल ने वृहद राजस्थान के प्रथम महाराज प्रमुख का पद हनुवंत सिंह को ना देकर उदयपुर के महाराणा भूपालसिंह को दिया.
ये घटना आज भी सरदार की सुझबुझ की गवाह है. इसीलिए मुझे आश्चर्य होता है आखिर महात्मा क्योकर नेहरु को प्रधानमंत्री बनाने पर राज़ी हो गए जबकि सरदार के रूप में इतना उपयुक्त विकल्प मौजूद था.
बहरहाल, आप सभी को राजस्थान स्थापना दिवस की बधाई.

Monday, March 19, 2012

"पुलिस वाला गुंडा"


रात्रि साढ़े दस बजे के करीब ट्राफिक पुलिस की क्रेन जयपुर के बाईसगोदाम स्थित "क्रिस्टल पाम" माल आकर रूकती है. क्रेन से एक बच्चा उतरता है.साथ में वर्दीधारी पुलिसकर्मी भी है. बच्चा लोहे की पतली स्केल के माध्यम से "नो पार्किंग" में खड़ी एक कार का मुख्य गेट खोलने की कोशिश करता है.
मुख्य गेट न खुलने की स्थिति में दूसरी तरफ आता है और मात्र तीस सेकण्ड में वह अपनी तकनीक से किसी पेशेवर चोर की भांति गेट खोलने में कामयाब हो जाता है.
 बच्चा अंदर घुस कर "हेंड ब्रेक " हटाता है.  क्रेन आती है, बच्चा कार के आगे क्रेन का हुक लगाता है.  क्रेन कार को उठाकर वहाँ  से चालीस-पचास मीटर दूर ले जाकर खड़ी हो जाती है.
 कार मालिक मेक्डोनाल्ड से दौड़ा हुआ आता है. मैं नजदीक जाता हूँ. पुलिस कर्मी पांच सौ रुपये लेकर कार छोड़ देता है. मुझे फोटो लेता देखकर पास आता है और मोबाइल छीन कर लास्ट वाला फोटो डिलीट कर देता है.

ध्यान देने वाली बात:
बच्चा किसी पेशेवर चोर की तरह एक मिनट से भी कम समय में कार का गेट खोल देता है,जबकि बच्चे की उम्र बारह या चौदह साल होगी. पुलिस कर्मी इस गैर जिम्मेदाराना तरीके से गाड़ी के गेट खुलने तक निगरानी करता है. कार के मालिक से रिश्वत लेकर कार को मुक्त कर देता है. और सबसे बड़ी बात उस वक़्त घडी में रात के साढ़े दस बज रहे होते है. अब इतनी रात कौनसी पुलिस "ऑन ड्यूटी" होती है ?
वैसे पुलिस वाला अपना नाम "राजेश कुमार" बताता है और कार का नंबर है- RJ 14 CB 4814" वाकया 15 मार्च 2012 की रात का है.

Friday, March 16, 2012

(Pictures) आज दशामाता व्रत पूजन



होली के दसवे दिन राजस्थान और गुजरात प्रांत में दशामाता व्रत पूजा का विधान है. सौभाग्यवती महिलाएं ये व्रत अपने पति कि दीर्घ आयु के लिए रखती है. प्रातः जल्दी उठकर आटे से माता पूजन के लिए विभिन्न गहने  और विविध सामग्री बनायीं जाती है. पीपल वृक्ष की छाव में ये पूजा करने की रीत है. कच्चे सूत के साथ पीपल की परिक्रमा की जाती है. तत्पश्चात पीपल को चुनरी ओढाई जाती है. पीपल छाल को "स्वर्ण" समझकर घर लाया जाता है और तिजोरी में सुरक्षित रखा जाता है. महिलाएं समूह में बैठकर व्रत से सम्बंधित कहानिया कहती और सुनती है. दशामाता पूजन के पश्चात "पथवारी" पूजी जाती है. पथवारी पूजन घर के समृद्धि के लिए किया जाता है. 
इस दिन नव-विवाहिताओं का श्रृंगार देखते ही बनता है. नव-विवाहिताओं के लिए इस दिन शादी का जोड़ा पहनना अनिवार्य माना गया है. 




















Friday, March 09, 2012

श्री श्री रवि शंकर: मिजाज़ से अलमस्त फकीर

“फलक बोला खुदा के नूर का मैं आशिकाना हूँ..
ज़मीं बोली उन्ही जलवों का मैं भी आस्ताना हूँ..”
नमस्ते जी. आज की बात शुरू करने से पहले तक मुझे हज़ार हिचकियाँ आ चुकी है. इस ख़याल भर से कि आज मुझे इतनी बड़ी शख्सियत की बात करनी है,जिसे देखने को आसमान की तरफ देखना पड़ता है. हाँ जी हां, मैं श्री श्री की बात कर रहा हूँ. श्री श्री रविशंकर साहब की. अजी हुजूरं, हुज़ुरां, आपका हुक्म है, सो उसी को अता फरमा रहा हूँ. वर्ना इतने महान लोगों को याद फरमाने के लिए किसी तारीख के बंधन को मैं नहीं मानता. मगर मन ने न जाने कितनी बार कहा कि मियाँ ! दस मार्च को परवर दिगार झीलों के शहर, हमारे उदयपुर तशरीफ़ ला रहे हैं. सो उनका एहतराम तो करना है. सो लीजिए पेश-ए -खिदमत है.

सोचता हूँ,तो लगता है, हाय ! क्या चीज़ बनायीं है कुदरत ने. अपनी जिंदगी में इस कदर पुरखुलूस और शराफत से लबरेज कि हम जैसो को आप ही अपने गुनाह दिखाई देने लगे. श्री श्री कुछ बोलने को मुह खोले तो लगे घुप्प अँधेरे में चरागाँ हो गया. अकेलेपन का साथी मिल गया. भटकते भटकते रास्ता मिल गया. उदासी को खुशी और दर्द को जुबान मिल गयी. क्या क्या नहीं हुआ और क्या क्या नहीं होता इस एक शफ्फाक, पाक आवाज़ के जादू से. शराफत की हज़ार कहानिया और बेझोड मासूमियत की हज़ार मिसालें. उन्हें याद करो तो एक याद के पीछे हज़ार यादें दौडी चली आती है. सो कोशिश करता हूँ हज़ार हज़ार बार दोहराई गयी बातों से बचते-बचाते हुए बात करूँ…
अब जैसे कि उनकी पैदाइश “आर्ट ऑफ लिविंग” ने हज़ारों-हज़ार की जिंदगियां बदल दी. आवाम गुस्सा भूलकर समाज की तरक्की में शरीक होने लगा. सुदर्शन क्रिया का मिजाज़ देखिये कि अल सुबह बैठकर हर जवान खून “ध्यान” करता है. क्या बंगलुरु और क्या अमेरिका.. सब के सब गुस्सा भूल रहे है. अजी जनाब ! सिर्फ मुस्कुरा ही नहीं रहे, औरों को भी बरकत दे रहे हैं. और श्री श्री … मिजाज़ से अलमस्त ये फकीर..जिसे जब देखो,हँसता रहता है… और कहता है कि तुम भी हँसो… हँसने का कोई पैसा नहीं…कोई किराया नहीं…
आप कह्नेगे भाई ये सारी लप-धप  छोडकर पहले ज़रा कायदे से उदयपुर में होने वाले उनके सत्संग की बात भी कर लो.. तो लो जनाब.. आपका हुक्म बजाते हैं. इस बकत उदयपुर का कोई मंदिर-कोई धर्म स्थल नहीं छूटा, जहाँ आर्ट ऑफ लिविंग के भजन न गूंजे हो. “जय गुरुदेव” का शंखनाद सुनाई दे रहा है. गली-मोहल्ले,सड़क-चौराहे के हर कोने में “आशीर्वाद” बरसाते पोस्टर- होर्डिंग शहर की आबो-हवा में प्यार का नशा घोल रहे है. होली की मस्ती दुगुनी लग रही है. “अच्युतम केशवम राम नारायणं , जानकी वल्लभं, गोविन्दम हरीम..” कानों में मिश्री घोल रहे है. घर घर न्योता भिजवाया गया है. तो मियाँ, आपको भी चुपचाप महीने की दस तारीख को सेवाश्रम के बी.एन. मैदान पर हाजिरी देनी है. समझ गए .! तमाम कोशिशों के बाद पूरे आठ साल बाद वो पाक रूह सरज़मीं-ए-मेवाड़ आ रही है. शुरू हो रहा है एक नया रिश्ता. एक क्या रिश्तों का पूरा ज़खीरा मिल रहा है. सो रहने दो… मैदान में जाकर खुद देख लेंगे. अभी श्री श्री की बाताँ करते हैं. वर्ना ये उदयपुर के बाशिंदों की मेहनत की स्टोरी तो इतनी लंबी है कि इसे सुनते-सुनाते ही मेरा आर्टिकल पूरा हो जायेगा और उपर से आवाज़ आएगी, “चलो मियाँ, भोत फैला ली, अब समेट लो” सो यही पे बस.

इसे कहते है इंसान: 

अक्सर हम लोग इंसान से गिरती हुई इंसानियत को देख देखकर छाती पिटते रहते है. मगर श्री श्री रविशंकर जैसे इंसान की बातें सुनो तो इंसानियत पर भरोसा लौटने लगता है. इस इंसान ने इतनी कामयाबी के बावजूद न तो घमंड को अपने आस पास आने दिया और न दौलत को अपने दिल पर हुकूमत करने दी. ज़रा सोचकर देखे कि इतना कामयाब इंसान कि देश के बड़े बड़े घराने जिसके सामने निचे बैठते है, और अजी घराने ही क्या, कई सारी कंपनियों के पूरे पूरे कुनबे उनको सुनते है.जब वही श्री श्री किसी 5-7 साल के छोटे बच्चे के साथ बैठते है तो बिलकुल बच्चे बन जाते है. शरारती तत्व. मैंने आस्था चेनल के लिए एक शूटिंग श्री श्री के साथ हिमाचल में की थी. वहीँ उनके उस छुपे तत्व को महसूस किया. जहा कोई आडम्बर नहीं, कोई दिखावा नहीं.. सफेद झक एक धोती में एक साधारण किन्तु पवित्र आत्मा. और मज़े की बात. श्री श्री को खुद गाने और भजनों पर नाचने का बहुत शौक है. कई बार स्वयं झूम उठते है. भक्ति-ध्यान-नृत्य-भजन- आनंद का अद्भुत संगम. माशा अल्लाह गजब के उस्ताद है. उस्तादों के उस्ताद,जिन्होंने लाखो करोडो को जीने की दिशा दे दी.
श्री श्री रविशंकर जनाब. उदयपुर की इस खूबसूरत फिजा में आपका तहे दिल से इस्तकबाल. तशरीफ़ लाइए. आज का नौजवां, जो भटक सा रहा है, उसे रास्ता दिखाईये.. वेलकम है जी आपका पधारो म्हारे देस की इस खूबसूरत सर ज़मी पर. मीरा बाई की पुकार सुनी आपने और यहाँ आये…अब हमारी पुकार भी सुन लीजिए. आनंद भर दीजिए. खम्मा घणी….

Monday, March 05, 2012

राजपूतों की आपसी रंजिश का परिणाम- हल्दीघाटी

इतिहास में हम पढते आये है कि अकबर की साम्राज्य विस्तार नीति  के कारन राजपूतों और मुघ्लों के बिच प्रसिद्द हल्दीघाटी का युद्ध लड़ा गया. २१ जून १५७६ को लड़े गए इस युद्ध को राजस्थान का "थर्मोपल्ली" भी कहा जाता है. किन्तु दरअसल कही न कही इतिहासकार कुछ बातों को दबा गए. उन्हें मुग़लों के सामने अपने को एक दिखाने के चक्कर में हकीकत को छुपाना ज्यादा हितकर लगा होगा. हो सकता है आप मेरी बात से सहमत न हो, किन्तु अपनी बात आपके सम्मुख रखना चाहूँगा.
अकबर का मेवाड़ को सम्मन भेजना- सन १५७१  में पहली बार भगवान दास कछवाहा  (आमेर के राजा )जब अकबर की और से दक्षिणी सौराष्ट्र का सफल युद्ध जीतकर पुनः आगरा लौट रहे थे, तब बिच में मेवाड़ सेहोकर गुज़रे. तब तक मेवाड़ को छोडकर अन्य सभी रियासतें,यहाँ तक कि पडोसी हाडोती (कोटा), मालवा (इन्दोर), ग्वालियर, इडर (उत्तरी गुजरात), मेरवाडा (अजमेर), गोडवाड (पाली-सिरोही),मारवाड, वागड(दक्षिणी राजस्थान)सब के सब मुघ्लों की अधीनता स्वीकार कर चुके थे. मेवाड़ की हालत चित्तोड से उदयपुर राजधानी स्थानांतरित करने के साथ ही बहुत क्षीण हो चुकी थी. तब अकबर ने कच्छवाहा को यह जिम्मेदारी सौंपी कि वे प्रताप को समझाए. कच्छवाहा ने समझाया भी किन्तु प्रताप नहीं माने. बात आई गयी हो गयी. उसके बाद अब्दुरहीम खानखाना भी आये. किन्तु कोई हल न निकला. अकबर उस वक़्त दक्षिण में साम्राज्य विस्तार में बहुत अधिक व्यस्त था. ऐसे में उसने मेवाड़ पर खास ध्यान नहीं दिया.

मानसिंह का मेवाड़ आना- असल कहानी यहीं से शुरू होती है. अकबरनामा के अनुसार मानसिंह जबरदस्ती "उड़ते तीर झेलने " की मानसिकता के चलते महाराणा को समझाने मेवाड़ आया. [परदे के पीछे की कहानी ये है कि अपनी बहन "जोधा बाई" का विवाह मुग़ल से करने के बाद उन्हें उस वक़्त जाती-बदर कर दिया गया था,जो उस वक़्त की व्यवस्था का सामान्य हिस्सा था. मेवाड़ के सिसोदिया कुल और जोधपुर के राठोड कुल को राजपूतों में सबसे साफ़ रक्त माना  जाता है.  राठोडों के मुग़लों से मिलने के बाद सिसोदिया एक बड़े कांटे की तरह मानसिंह को चुभ रहे थे.]
मानसिंह के उदयपुर आने पर प्रोटोकोल के अनुसार उन्हें पूरा आथित्य सत्कार दिया गया किन्तु महाराणा प्रताप स्वयं उनसे नहीं मिले. पूरे चार दिन महलों में मानसिंह को पूरा राजकीय सत्कार दिया गया. बात बिगड़ती देख मानसिंह वापस जाने को हुए. तब विदाई की रस्म के चलते उन्हें मेवाड़ राज-सत्ता की और से एक भोज देना था. यह भोज दिया भी गया. किन्तु भोज-स्थल चुना गया मेवाड़ राजधानी की सीमा से बहार स्थित उदयसागर के पाल... (वर्तमान में उदयपुर शहर से १२ किमी दूर)
यहाँ मेवाड़ के सभी १६ उमराव (दरबार के खास ठिकानेदार) इकठ्ठा हुए. भोजन परोस दिया गया,किन्तु प्रताप के स्थान पर उनके पुत्र अमरसिंह भोज में शरीक हुए. मानसिंह के पूछने पर अमर बोले कि प्रताप के पेट में दर्द है. मानसिंह ने जवाब दिया,कि उनके "पेट में क्यों दुःख रहा है",ज्ञात है. मानसिंह बिच भोजन से उठ गया. लौट रहे  मानसिंह और उसके पुत्र को पीछे से राव भीम ने फब्ती कसी कि अगली बार आये तो अपने फूफा (अकबर) को साथ लेकर आना. मानसिंह इस अपमान को कभी भूल नहीं पाया और यही से युद्ध की नीव पड़ी. मानसिंह के जाने के बाद उस स्थान को गौ मूत्र से पवित्र किया गया और जहाँ मानसिंह बैठा था उस स्थान की मिट्टी को खोदकर झील में दाल दिया गया.

अकबर-मानसिंह वार्ता-
आगरा पहुच कर मानसिंह ने अकबर के कान भरे. अकबर प्रताप का बहुत सम्मान करता था. ऐसा कहा जाता है कि उसने मेवाड़ पर आक्रमण से इनकार कर दिया. तब मानसिंह ने दूसरी चाल चली. मानसिंह ने अकबर को बताया कि मेवाड़ के सिसोदिया वंशज "हिंदुआ सूरज" कहलाते है. जब तक राजपूतों के यह सबसे ऊँची गौत्र नहीं झुकती है, आपका सम्पूर्ण राजपूतों को जितने का सपना पूरा नहीं हो पायेगा. इस पर अकबर अपने साले की बात  नहीं टाल पाया और उसी के न्रेतत्व में शाही सेना भेज दी .

हल्दीघाटी युद्ध-
मात्र पांच घंटे चले इस युद्ध का रणस्थल उदयपुर से पेंतीस किमी दूर खमनोर था. खमनोर के पास शाही सेना का पड़ाव था. आज उस स्थान को शाही बाग  कहते है. यहाँ से आगे का रास्ता एक दर्रे से होकर गुज़रता है. वाही से गुजरते वक़्त राजपूतों और भीलों ने शाही सेना पर आक्रमण किया.२१ जून १५७६ को हुए इस युद्ध में एक बारगी अचानक हुए हमले से मुग़ल काफी पीछे भाग खड़े हुए. इस अफवाह कि अकबर और सेना लेकर अजमेर से आ गया है, भागती सेना रुक गयी और रक्त तलायी नामक स्थान पर पुनः युद्ध हुआ. प्रताप का प्रिय घोडा चेटक मारा गया,किन्तु उसने अपने स्वामी की जन बचायी.
युद्ध अनिर्णीत खत्म हो गया. न किसी की हार हुई न ही जीत. क्योकि हार-जीत के लिए किसी एक सेना के प्रमुख का पकड़ा जाना या मारा जाना आवश्यक था. इस युद्ध के बाद प्रताप ने भीष्म प्रतिज्ञा ली और काफि वर्षों तक जंगलों में वास किया.

इस युद्ध से अकबर काफी खफा था. हल्दीघाटी के बाद उसने मेवाड़ पर एक भी हमला नहीं किया. तब तक सभी किले मुघ्लों के पास जा चुके थे. बाद में प्रताप ने एक एक करके सभी किले वापस जीत लिए (चित्तोड को छोडकर ) किन्तु तब भी मुघ्लों ने पुनः युद्ध नहीं किया. इस बात का प्रमाण आमेर, मेवाड़ के इतिहास के साथ साथ अकबर नामा और आईने-अकबरी में भी मिलता है. साथ ही साथ आगरा दरबार में मानसिंह का ओहदा भी कम कर दिया गया.
मूल तथ्य यही है कि इस युद्ध का मुख्य कारक सिर्फ और सिर्फ मान सिंह का अहम था. राजपूत खून का मुग़ल के साथ ब्याहना उस वक़्त राजपूत समुदाय को नागवार गुज़रा,जिस से जगह जगह मानसिंह को बिरादरी में अपमानित होना पडा. इसी वजह से उसने राजपूतों के सबसे ऊँचे कुल को निचा दिखने की ठानी और परिणाम हल्दीघाटी के रूप में सामने आया.
इतिहासकारों ने राजपूत नाक बचाने के एवज में सारा का सारा दोषारोपण मुघ्लों पर किया.

Wednesday, February 29, 2012

यो म्हारो उदियापुर है...!

यो म्हारो उदियापुर है...!

उदयपुर में एक खास किस्म की नफासत है जो दिल्ली, जयपुर या किसी और शहर में नहीं मिलती. केवल इमारतें या बाग-बगीचें ही नहीं,बल्कि उदयपुरी जुबां भी ऐसी है कि कोई बोले तो लगता है कानों में शहद घोल दिया हो. केवल राह चलते लोग ही नहीं बल्कि इस शहर में तो सब्जी बेचने वाले हो या सोना-चांदी बेचने वाले  सब इसी खास जुबान में ही बात करते है. "रिपिया कई रुखड़ा पे लागे जो थारे ठेला री अणि  हुगली साग ने पांच रिपिया पाव लूँ.. तीन में देनी वे तो देई जा भाया...!" जब बनी ठनी छोटी चाची जी सब्जी वाले से कुछ इस तरह भाव-ताव करती है तो फक्र महसूस होता है  अपनी मेवाडी पर. कई बार तो परकोटे के भीतर माहौल कुछ ऐसा हो जाता है कि अजनबी यही सोचकर कुछ बोलने से डरते है कि वह सबसे अलग दिखने लगेंगे.
केवल उदयपुर के मूल निवासियों या राजपूतों ने ही नहीं बल्कि शहर की इस तहज़ीब भरी जुबां को अन्य समुदायों ने भी अपने जीवन में समाहित किया है.. "म्हारा गाबा लाव्जो मम्मी, मुं हाप्डी रियो हूँ " ये शब्द सुने मैंने "बड़ी होली" मोहल्ले में रहने वाले एक ईसाई बच्चे के मुह से. यकीन मानिए,इतना सुनने  के बाद कोई नहीं कह सकता कि ये ईसाई है. उस बच्चे के मुह से मेवाडी लफ्ज़ इस खूबसूरती और नरमाई लिए निकल रहे थे कि लगा मानो, वो मेवाडी तहज़ीब का चलता फिरता आइना हो.
उदयपुर के कूंचों में आप मेवाडी ज़बान सुन सकते हैं. मशहूर मांड गायिका मांगी बाई के मुह से "पधारो म्हारे देस" सुनने के लिए दस दस कोस के लोग लालायित रहते है. यहाँ के हर लोक कलाकार, कवि सभी में कहीं न कहीं मेवाडी अंदाज़ ज़रूर झलकता है. और तब  " पूरी  छोड़ ने आधी खानी, पण मेवाड़ छोड़ने कठेई नि जानी" कहावत सार्थक हो उठती है. . कवि "डाडम चंद डाडम" जब अपनी पूरी रंगत में आकर किसी मंच से गाते हैं- "मारी बाई रे कर्यावर में रिपिया घना लागी गिया.. इ पंच तो घी यूँ डकारी गिया जू राबड़ी पि रिया वे..." तो माहौल में ठहाका गूँज उठता है.

बात राबड़ी की निकली तो दूर तलक जायेगी...

बचपन में सुना करते थे कि अगर सुबह सुबह एक बड़ा कटोरा भरके देसी मक्की की राब पी ली जाये तो दोपहर तक भूख नहीं लगती. जो लोग गाँव से ताल्लुक रखते है, उन्हें वो दृश्य ज़रूर याद आता होगा, जब आँगन के एक कोने में या छत पर जल रहे चूल्हे पर राबड़ी के  तोलिये (काली बड़ी मटकी,जिसे चूल्हे पर चढ़ाया जाता था)से भीनी भीनी खुशबु उठा करती थी और घर के बुज़ुर्ग चिल्लाते थे.. "अरे बराबर हिलाते रहना, नहीं तो स्वाद नि आएगा." और देसी लफ़्ज़ों में कहे तो "राब औजी जाई रे भूरिया" ..
वो भी गजब के  ठाठ थे राबड़ी के, जिसके बिना किसी भी समय का भोजन अधूरा माना जाता था. मक्की की उस देसी राब का स्वाद अब बमुश्किल मिल पाता है. होटलों में राब के नाम पर उबले मक्की के दलिये को गरम छाछ में डालकर परोस देते है.
"दाल बाटी चूरमा- म्हारा काका सुरमा "
चूल्हे पर चढ़ी राब और निचे गरम गरम अंगारों पर सिकती बाटी. नाम सुनने भर से मुह में पानी आ जाता है. पहले देसी उपलों के गरम अंगारों पर सेको, फिर गरम राख में दबा दो.. बीस-पच्चीस मिनट बाद बहार निकाल कर.. हाथ से थोड़ी दबाकर छोड़ दो घी में..  जी हाँ, कुछ ऐसे ही नज़ारे होते थे चंद बरसों पहले.. अब तो बाफला का ज़माना है. उबालो-सेको-परोसो.. का ज़माना जो आ गया है. अब घर घर में ओवन है, बाटी-कुकर है. चलिए कोई नहीं. स्वाद वो मिले न मिले..बाटी मिल रही है, ये ही क्या कम है !!
अब शहर में कही भी उस मेवाडी अंदाज़ का दाल-बाटी-चूरमा नसीब नहीं. एक-आध रेस्टोरेंट था तो उन्होंने भी क्वालिटी से समझौता कर लिया. कही समाज के खानों में बाटी मिल जाये तो खुद को खुशकिस्मत समझते हैं. और हाँ, बाटी चुपड़ने के बाद बचे हुए घी में हाथ से बने चूरमे का स्वाद... कुछ याद आया आपको !
आधी रात को उठकर जब पानी की तलब लगती है तो दादी का चिर परिचित अंदाज़ सुनने को मिलता है.. "बाटी पेट में पानी मांग री है"  चेहरे पर मुस्कान आ जाती है.
"मैं मेवाड़ हूँ."
मोतीमगरी पर ठाठ से विराजे महाराणा प्रताप सिंह जी, चेटक सर्किल पर रौब से तीन टांग पर खड़ा उनका घोडा चेटक... जगदीश मंदिर की सीढियाँ  चढ़ता फिरंगी और अंदर जगन्नाथ भगवान के सामने फाग गाती शहर की महिलाएं.. गणगौर घाट के त्रिपोलिया दरवाज़े से झांकती पिछोला.. नेहरु गार्डन में मटके से पानी पिलाती औरत की मूर्ति, सहेलियों की बाड़ी मे छतरी के ऊपर लगी चिड़िया के मुह से गिरता फिरता पानी.. गुलाब बाग में चलती छुक छुक रेल, सुखाडिया सर्किल पर इतनी बड़ी गेहूं की बाली... लेक पेलेस की पानी पर तैरती छाया, दूर किसी पहाड़ से शहर को आशीर्वाद देती नीमच माता... जी हाँ ये हमारा उदयपुर है.
शहर की इमारतों का क्या कहना.. मेवाड़ के इतिहास की ही तरह ये भी भव्य है..अपने में एक बड़ा सा इतिहास समेटे हुए. पिछोला किनारे से देखने पर शहर का मध्य कालीन स्वरुप दिखता है. यूँ तो उदयपुर को कहीं से भी देखो,ये अलग ही लगता है पर पिछोला के नज़ारे का कोई तोड़ नहीं. एक तरफ गर्व से सीना ताने खड़ा सिटी पेलेस.. तो दूसरी तरफ होटलों में तब्दील हो चुकी ढेर सारी हवेलियाँ. जाने कितने राजपूतों के आन-बाण शान पर खड़ा है ये शहर..
शाम के समय मोती मगरी पर "साउंड और लाईट शो" चलता है. यहीं पर स्थित मोती महल में प्रताप अपने कठिनाई भरे दिनों में कुछ दिन ठहरे थे. खंडहरों पर जब रौशनी होती है और स्वर गूंजता है..."मैं मेवाड़ हूँ" तो यकीन मानिये आपका रोम रोम खड़ा हो जाता है. कुम्भा, सांगा, प्रताप, मीरा, पन्ना, पद्मिनी... जाने कितने नाम गिनाये... तभी माहौल में महाराणा सांगा का इतिहास गूँजता है. कहते ही उनका जन्म तो ही मुग़लों को खदेड़ने के लिए हुआ था. उनकी लहराती बड़ी बड़ी मूंछें,गहरे अर्थ लिए शरीर के अस्सी घाव, लंबा और बलिष्ठ बदन उनके व्यक्तित्व को और अधिक प्रभावशील बना देता था. और तभी मुझे मेरठ  के मशहूर वीर रस कवि "हरी ओम पवार" के वे शब्द याद आते है... " अगर भारत के इतिहास से राजस्थान निकाल दिया जाये, तो इतिहास आधा हो जाता है.. पर राजस्थान से अगर मेवाड़ को निकाल दिया जाये, तो कुछ नहीं बचता !"

इसी बीच घूमते घूमते आप देल्ही गेट पहुच जाये और "भोला " की जलेबी का स्वाद लेते लेते अगर आपको ये शब्द सुनने को मिल जाये.. " का रे भाया..घनो हपड हापड जलेबियाँ चेपी रियो हे.. कम खाजे नि तो खर्-विया खावा लाग जायगा." तो यकीन मानिये आप ने शहर को जी लिया... वैसे उदयपुर निहायत ही खूबसूरत शहर है, और जब हम इसकी जुबान, खान पान की  बात छेड़ देते है तो बहुत कुछ आकर्षक चीज़ें हमसे छूट जाती है..

Tuesday, February 28, 2012

हिंदू है...... इसे जाने दो !


दस साल पहले गोधरा में ट्रेन जलाए जाने के बाद भड़के दंगे को कवर करने गए बीबीसी संवाददाता रेहान फज़ल को किस तरह दंगाइयों की भीड़ का सामना करना पड़ा और किस तरह उन्होंने अपनी जान बचाई, पढि़ए उनके लिखे इस संस्‍मरण में।


27 फ़रवरी 2002 की अलसाई दोपहर. मेरी छुट्टी है और मैं घर पर अधलेटा एक किताब पढ़ रहा हूँ. अचानक दफ़्तर से एक फ़ोन आता है. मेरी संपादक लाइन पर हैं. 'अहमदाबाद से 150 किलोमीटर दूर गोधरा में कुछ लोगों ने एक ट्रेन जला दी है और करीब 55 लोग जल कर मर गए हैं.' मुझे निर्देश मिलता है कि मुझे तुरंत वहाँ के लिए निकलना है. मैं अपना सामान रखता हूँ और टैक्सी से हवाई अड्डे के लिए निकल पड़ता हूँ. हवाई अड्डे के पास भारी ट्रैफ़िक जाम है.अफ़गानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करज़ई का काफ़िला निकल रहा है. मैं देर से हवाई अड्डे पहुँचता हूँ. जहाज़ अभी उड़ा नहीं हैं लेकिन मुझे उस पर बैठने नहीं दिया जाता. मेरे लाख कहने पर भी वह नहीं मानते. हाँ यह ज़रूर कहते हैं कि हम आपके लिए कल सुबह की फ़्लाइट बुक कर सकते हैं. अगले दिन मैं सुबह आठ बजे अहमदाबाद पहुँचता हूँ. अपना सामान होटल में रख कर मैं अपने कॉलेज के एक दोस्त से मिलने जाता हूँ जो गुजरात का एक बड़ा पुलिस अधिकारी है. वह मेरे लिए एक कार का इंतज़ाम करता है और हम गोधरा के लिए निकल पड़ते हैं. मैं देखता हूँ कि प्रमुख चौराहों पर लोग धरने पर बैठे हुए हैं. मेरा मन करता है कि मैं इनसे बात करूँ. लेकिन फिर सोचता हूँ पहले शहर से तो बाहर निकलूँ.अभी मिनट भर भी नहीं बीता है कि मुझे दूर से करीब 200 लोगों की भीड़ दिखाई देती है. उनके हाथों में जलती हुई मशालें हैं. वे नारे लगाते हुए वाहनों को रोक रहे हैं. जैसे ही हमारी कार रुकती है हमें करीब 50 लोग घेर लेते हैं. मैं उनसे कुछ कहना चाहता हूँ लेकिन मेरा ड्राइवर इशारे से मुझे चुप रहने के लिए कहता है. वह उनसे गुजराती में कहता है कि हम बीबीसी से हैं और गोधरा में हुए हमले की रिपोर्टिंग करने वहाँ जा रहे हैं. काफ़ी हील हुज्जत के बाद हमें आगे बढ़ने दिया जाता है. डकोर में भी यही हालात हैं. इस बार हमें पुलिस रोकती है. वह हमें आगे जाने की अनुमति देने से साफ़ इनकार कर देती है. मेरा ड्राइवर गाड़ी को बैक करता है और गोधरा जाने का एक दूसरा रास्ता पकड़ लेता है.

छुरे से वार
 
जल्दी ही हम बालासिनोर पहुँच जाते है जहाँ एक और शोर मचाती भीड़ हमें रोकती है. जैसे ही हमारी कार रुकती है वे हमारी तरफ़ बढ़ते हैं. कई लोग चिल्ला कर कहते हैं,'अपना आइडेन्टिटी कार्ड दिखाओ.' 
मैं अपनी आँख के कोने से देखता हूँ मेरे पीछे वाली कार से एक व्यक्ति को कार से उतार कर उस पर छुरों से लगातार वार किया जा रहा है. वह ख़ून से सना हुआ ज़मीन पर गिरा हुआ है और अपने हाथों से अपने पेट को बचाने की कोशिश कर रहा है. उत्तेजित लोग फिर चिल्लाते हैं, 'आइडेन्टिटी कार्ड कहाँ है?' मैं झिझकते हुए अपना कार्ड निकालता हूँ और लगभग उनकी आँख से चिपका देता हूँ. मैंने अगूँठे से अंग्रेज़ी में लिखा अपना मुस्लिम नाम छिपा रखा है. हमारी आँखें मिलती हैं. वह दोबारा मेरे परिचय पत्र की तरफ़ देखता है. शायद वह अंग्रेज़ी नही जानता. तभी उन लोगों के बीच बहस छिड़ जाती है. एक आदमी कार का दरवाज़ा खोल कर उसमें बैठ जाता है और मुझे आदेश देता है कि मैं उसका इंटरव्यू रिकार्ड करूँ. मैं उसके आदेश का पालन करता हूँ. वह टेप पर बाक़ायदा एक भाषण देता है कि मुसलमानों को इस दुनिया में रहने का क्यों हक नहीं है. अंतत: वह कार से उतरता है और उसके आगे जलता हुआ टायर हटाता है.   


कांपते हाथ
मैं पसीने से भीगा हुआ हूँ. मेरे हाथ काँप रहे है. अब मेरे सामने बड़ी दुविधा है. क्या मैं गोधरा के लिए आगे बढ़ूँ जहाँ का माहौल इससे भी ज़्यादा ख़राब हो सकता है या फिर वापस अहमदाबाद लौट जाऊँ जहाँ कम से कम होटल में तो मैं सुरक्षित रह सकता हूँ.लेकिन मेरे अंदर का पत्रकार कहता है कि आगे बढ़ो. जो होगा देखा जाएगा. सड़कों पर बहुत कम वाहन दौड़ रहे हैं. कुछ घरों में आग लगी हुई है और वहाँ से गहरा धुआं निकल रहा है. चारों तरफ़ एक अजीब सा सन्नाटा है. मैं सीधा उस स्टेशन पर पहुँचता हूँ, जहाँ ट्रेन पर आग लगाई गई थी. पुलिस के अलावा वहाँ पर एक भी इंसान नहीं हैं. चारों तरफ़ पत्थर बिखरे पड़े हैं. एक पुलिस वाला मुझसे उस जगह को तुरंत छोड़ देने के लिए कहता है.मैं पंचमहल के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक राजू भार्गव से मिलने उनके दफ़्तर पहुँचता हूँ. वह मुझे बताते हैं कि किस तरह 7 बजकर 43 मिनट पर जब साबरमती एक्सप्रेस चार घंटे देरी से गोधरा पहुँची, तो उसके डिब्बों में आग लगाई गई. वह यह भी कहते हैं कि हमलावरों को गिरफ़्तार कर लिया गया है और पुलिसिया ज़ुबान में स्थिति अब नियंत्रण में है. मेरा इरादा गोधरा में रात बिताने का है लेकिन मेरा ड्राइवर अड़ जाता है. उसका कहना है कि यहाँ हालात ओर बिगड़ने वाले हैं. इसलिए वापस अहमदाबाद चलिए.


टायर में पंक्चर
 हम अपनी वापसी यात्रा पर निकल पड़ते हैं. अभी दस किलोमीटर ही आगे बढ़े हैं कि हम देखते हैं कि एक भीड़ कुछ घरों को आग लगा रही है. मैं अपने ड्राइवर से कहता हूँ, स्पीड बढ़ाओ. तेज़.... और तेज़!
वह कोशिश भी करता है लेकिन तभी हमारी कार के पिछले पहिए में पंक्चर हो जाता है. ड्राइवर आनन फानन में टायर बदलता है और हम आगे बढ़ निकलते हैं. हम मुश्किल से दस किलोमीटर ही और आगे बढ़े होंगे कि हमारी कार फिर लहराने लगती है. इस बार आगे के पहिए में पंक्चर है. हम बीच सड़क पर खड़े हुए हैं.... बिल्कुल अकेले. हमारे पास अब कोई अतिरिक्त टायर भी नहीं है. ड्राइवर नज़दीक के एक घर का दरवाज़ा खटखटाता है. दरवाज़ा खुलने पर वह उनसे विनती करता है कि वह अपना स्कूटर कुछ देर के लिए उसे दे दें ताकि वह आगे जा कर पंक्चर टायर को बनवा सके.



क्रेडिट कार्ड ने जान बचाई

जैसे ही वह स्कूटर पर टायर लेकर निकलता है, मैं देखता हूँ कि एक भीड़ हमारी कार की तरफ़ बढ़ रही है. मैं तुरंत अपना परिचय पत्र, क्रेडिट कार्ड और विज़िटिंग कार्ड कार की कार्पेट के नीचे छिपा देता हूँ. यह महज़ संयोग है कि मेरी पत्नी का क्रेडिट कार्ड मेरे बटुए में है. मैं उसे अपने हाथ में ले लेता हूँ. माथे पर पीली पट्टी बाँधे हुए एक आदमी मुझसे पूछता है क्या मैं मुसलमान हूँ. मैं न में सिर हिला देता हूँ. मेरे पूरे जिस्म से पसीना बह निकला है. दिल बुरी तरह से धड़क रहा है. वह मेरा परिचय पत्र माँगता है. मैं काँपते हाथों से अपनी पत्नी का क्रेडिट कार्ड आगे कर देता हूँ. उस पर नाम लिखा है रितु राजपूत. वह इसे रितिक पढ़ता है. अपने साथियों से चिल्ला कर कहता है, 'इसका नाम रितिक है. हिंदू है.... हिंदू है... इसे जाने दो.'! इस बीच मेरा ड्राइवर लौट आया है. वह इंजन स्टार्ट करता है और हम अहमदाबाद के लिए निकल पड़ते हैं बिना यह जाने कि वह भी सुबह से ही इस शताब्दी के संभवत: सबसे भीषण दंगों का शिकार हो चुका है.
(साभार - www.bbchindi.com)

Monday, February 13, 2012


है फ़र्ज़ तुझ पे फ़क़त बंदा-ए-खुद की तलाश...
खुदा की फ़िक्र न कर वह मिला, मिला न मिला...

Saturday, February 11, 2012

....समझा तो केवल एक औरत!

.समझा तो केवल एक औरत!

कई बार लोग कहते हैं ज़माना बदल गया है। क्या वाकई ऐसा हुआ है? शायद नहीं। मानसिकता बदलने को ज़माने के बदलाव से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। मानसिकता में बदलाव ने आज समाज को कई रास्तों वाले चौराहे पर ला खडा कर दिया है। एक बदलाव जिसका ज़िक्र सबसे करना ज़रूरी, वह है महिलाओं को लेकर पुरुष समाज की सोच में बदलाव का। कहने को तो औरत के कई रूप हैं, माँ-बेटी-बहन से लेकर पत्नी तक, मगर इन रिश्तों से इतर महिलाओं को केवल औरत समझा जाने की परम्परा और मानसिकता ने समाज को विद्रूप बना दिया है। पूरे देश के तमाम हिस्सों के हालात भी कमतर नहीं हैं।

जिस देश ने नारी को देवी का दर्ज़ा दिया था वहाँ अब उन्हें केवल औरत से ज़्यादा कुछ नहीं समझा जा रहा। देश के महत्वपूर्ण पदों पर महिलाओं की मौजूदगी के बावजूद आज ऍन केन्द्र सरकार की नाक के नीचे, जिस दिल्ली की सुरक्षा का ज़िम्मा केन्द्रीय गृह मंत्रालय के पास है, महिलायें महफूज़ नहीं है। हाल के समय में अकेले दिल्ली के आंकड़ों पर गौर करें तो भयावह चित्र सामने आता है। दुधमुंही बच्चियों से लेकर परदादी की उम्र तक की महिलाओं के साथ लगातार घट रहे वीभत्स हादसे किसी की आँखें खोलने के लिए नहीं, बल्कि खुली आँखें नम करने या उन्हें अपने हाथों से फोड़ लेने के लिए प्रेरित करते हैं। ऐसी कई घटनाओं की बानगी सामने है, जिसमें समाज की नपुंसकता साफ़ दिखाई देती है। क्या वाकई हम अपने घर की सुरक्षा के मामले में अपना पुरुषत्व खो बैठे हैं? देश के सर्वोच्च शक्तिशाली पदों पर दमदार महिलायें काबिज हैं, शायद उन्हें अपनी ही कौम की दुर्दशा का भान नहीं है, या हो सकता है कि ज़बरदस्त सुरक्षा वाली उनकी अट्टालिकाओं के कंगूरों के उस पार उन तक यह तस्वीरें नहीं पहुँच पाती हों। एक मासूम-सी जान ‘फलक’ एम्स में जिंदगी और मौत से जूझ रही है। ठीक हो भी गई तो उसका भविष्य क्या होगा, बताना बहुत मुश्किल है। इस बच्ची की कहानी ने देश को झकझोर कर रख दिया है। क्या वाकई इतने निर्मम हो सकते हैं माता-पिता, या पैसे की हवस ने उन्हें इतना अंधा कर दिया है कि वे अपने कलेजे के टुकड़े को देह की मंडी में बेच सकते हैं। हालांकि यह कोई एक फलक की कहानी नहीं है। ऐसी अगणित लड़कियां हैं जिनके साथ हर रोज अमानवीय अत्याचार होता है। कुछ को बमुश्किल न्याय मिल भी जाता है पर अधिकांश सिसकियों में जिंदगी गुजार देती हैं। आधी आबादी की बदहाली के बारे में जनसंख्या संबंधी सरकारी आंकड़े जितने चौंकानेवाले हैं, कहीं उतनी ही भयावह है लोगों की मानसिकता। देश में नारी सशक्तीकरण की चाहे जितनी बातें होती हों, लेकिन हकीकत इसके बिलकुल विपरीत है। बेशक आज दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में महिलाओं ने हर बड़े मोर्चे संभाल रखे हों लेकिन आजादी के बाद से देश में महिला-पुरु ष अनुपात में तेजी से गिरावट आई है। आंकड़ों के मुताबिक देश में 1000 बालकों के मुकाबले केवल 914 बालिकाएं हैं। एक तरफ जहां हमारे वेद और शास्त्रों में नारी को पूजे जाने का उपदेश दिया गया है, वहीं हमारे मौजूदा पितृसत्तात्मक समाज में कहीं बेटियों को कोख में ही मार दिया जाता है, तो कहीं सरेआम उसकी अस्मत को बेरहमी से कुचला जाता है। कहीं पुरु ष मनोग्रंथि के चलते, तो कहीं समाज में अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शित करने के लिए स्त्री के शरीर को जागीर समझकर उस पर जुल्म ढाए जाते हैं। समाज पर पुरुष की प्रधानता का इससे बेहतर प्रमाण और क्या हो सकता है कि जितनी भी गालियां प्रचलित हैं वह मां और बहन के अपमान से ही संबंधित हैं। दो साल की मासूम या अस्सी साल की वृद्धा का दोष क्या केवल इतना है कि वे अपनी सुरक्षा खुद कर पाने में नाकाम होती हैं? राजनीति करने वाले भी ऐसे मौकों पर अपनी रोटियां सेंकने का कुत्सित प्रयास करते हैं, लेकिन जब रोटी जलने लगती है तो वे भी पीछे हट जाते हैं। आधी आबादी का दर्ज़ा प्राप्त महिला तबका खुद को आज लुटा हुआ महसूस करता होगा….सामाजिक….राजनीतिक…शारीरिक…..सभी क्षेत्रों में।
(आभार: उपदेश सक्सेना, दिल्ली)

Tuesday, February 07, 2012

"खुशियों का दौर भी कभी आ ही जायेगा...!!
ग़म भी तो मिल रहे हैं, तमन्ना किये बगैर ...!!"
 


महकती रात शराबों से प्यार करता था
उन दिनों मैं भी गुलाबों से प्यार करता था ..


हज़ारों ऐब हैं मुझमें, नहीं कोई हुनर बेशक
मेरी ख़ामी को तू ख़ूबी में यूँ तब्दील कर देना
मेरी हस्ती है इक खारे समंदर-सी मेरे मौला!
तू अपनी रहमतों से इसको मीठी झील कर देना



मैं खुल के के हंस तो रहा हूँ फ़कीर होते हुए ..
वो मुस्कुरा भी ना पाया अमीर होते हुए...    


एक चिराग सा दिन रात जलता रहता हूँ..
मैं थक गया हूँ, हवा से कहो, अब बुझा दे मुझे..
बहुत दिनों से मैं इन पत्थरों में पत्थर हूँ..
कोई तो आये ज़रा देर को रुला दे मुझे...   

(आभार: मेरे कुछ अपने, जो मेहनत करके खुबसूरत पंक्तियाँ गढ़ते हैं...)


Saturday, February 04, 2012

कोई तो ध्यान दो इधर !!

दुनियाभर के पर्यटक उदयपुर क्यों आते है ?? जवाब आसान है. यूँ तो बहुत कुछ है उदयपुर में देखने, महसूस करने के लिए पर मुख्यतः यहाँ की झीलें निहारने के लिए विदेशी पर्यटक और हमारे अपने देशवासी भी बार बार मेवाड़ का रुख करते है.  किन्तु आज अगर झीलों की दशा पर गौर करें तो पाएंगे कि शायद हम लोग हमारी विरासत संभाल नहीं पा रहे. मेवाड़ के महाराणाओ ने भी नहीं सोचा होगा कि उनके सपनो की कालांतर में हकीकत कुछ और होगी. अगर आप हमारी बात से इत्तेफाक नहीं रखते तो चलिए आज आपको शहर की झीलों का भ्रमण करा ही देते है.

शुरुआत करते हैं फतहसागर से. मुम्बईया बाजार में आपका स्वागत है.  आप आराम से किनारे पर बैठिये. ब्रेड पकोडे का आनंद लीजिए.. यहाँ की कुल्हड़ काफी का स्वाद स्वतः मुह में पानी ला देता है.  पर गलती से भी नीचे  झील में झाँकने की भूल मत कीजिये. आपको शहर की खूबसूरती पर पहला पैबंद नज़र आ जायेगा. जी हाँ.. इतनी गन्दगी.. पानी में इतनी काई. न तो नगर परिषद की टीम यहाँ नज़र आती है न ही झील हितैषी मंच... ! वैसे आप भी कम नहीं है.. याद कीजिये, कितनी बार काफी गटकने के बाद आपने कुल्हड़ या थर्मोकोल गिलास कचरा  पात्र में डाला.. न कि झील में.. अजी कुल्हड़ तो मिट्टी का है, पानी में मिल जायेगा...बेहूदा जवाब नहीं है ये ? आगे बढ़कर फतहसागर के ओवरफ्लो गेट को तो मत ही देखिएगा. यहाँ गन्दगी चरम पर है. 

पिछोला घूमे है कभी ? सच्ची !! चलिए एक बार फिर पिछोला की परिक्रमा करते है . कितना खूबसूरत दरवाज़ा है. नाम चांदपोल. वाह ! बेहतरीन पुल. पर गलती से भी चांदपोल के ऊपर से गुज़रते वक्त दायें-बाएं पिछोला दर्शन मत कीजियेगा.. आपको मेरी कसम. अब मेरी कसम तोड़कर देख ही लिया तो थोडा दूर लेक पेलेस को देखकर अपनी शहर की खूबसूरती पर मुस्कुरा भर लीजिए, पुल से एकदम नीचे या यहाँ-वहाँ बिलकुल नहीं देखना.. वर्ना पड़ोस की मीरा काकी, शोभा भुआ घर के तमाम कपडे-लत्ते धोते वहीँ  मिल जायेगी. आप उनको पहचान लोगे, मुझे पता है. पर वो आपको देखकर भी अनदेखा कर देगी..!जैसे आपको जानती ही नहीं.  चलिए उनको कपडे धोने दीजिए. आप तब तक पानी पर तैर रही हरी हरी काई और जलकुम्भी को निहारिए.
झीलों के शहर की तीसरी प्रमुख झील स्वरुप सागर की तो बात ही मत कीजिये. पाल के नीचे लोहा बाजार में जितना कूड़ा-करकट न होगा,उतना तो झील में आपको यूँ ही देखने को मिल जायेगा. याद आया !वो मंज़र..जब झीलें भर गयी थी और इसी स्वरुप सागर के काले किवाडों से झर झर बहता सफ़ेद झक पानी देखा था. पर फ़िलहाल पानी मेरी आँखों में आ गया.. न न झील के हालात को देखकर नहीं, पास ही में एक मोटर साइकिल  रिपेयरिंग की दूकान के बाहर से उठते धुएं ने मेरी आँखों से पानी बहा ही दिया.

कुम्हारिया तालाब  और रंग सागर . क्या ... मैंने ठीक से सुना नहीं...आपको नहीं पता कि ये कहाँ है ! अजी तो देर किस बात की. अम्बा माता के दर्शन करने के पश्चात वहीँ  अम्बा पोल से  अंदरूनी शहर में प्रवेश करते है (शादी की भीड़ को चीरकर अगर पहुच गए तो) तो पोल के दोनों तरह जो  दिखाई दे रहा  है, वो दरअसल झील है. ओह..याद आ गया आपको. "पर पानी कहाँ है. !" कसम है आपको भैरूजी बावजी की. ऐसा प्रश्न मत पूछिए. ये झील ही है पर देखने में झील कम और "पोलो ग्राउंड " ज्यादा लगते है. वजह साफ़, पानी कम है और जलकुम्भी ज्यादा. चलिए अच्छा है. अतीत में ही सही, पर है तो झील  ही न. 
बस सवाल यही है.. क्या हम सिर्फ माननीया सभापति महोदया के भरोसे बैठेंगे... या इस बात का इन्तेज़ार करेंगे कि कोई रहनुमा आएगा झीलों का रूप सुधारने  के लिए... !! क्या हम कभी अपने सामाजिक सरोकारों के प्रति भी सजग होंगे. क्या सोचना है आपका ... मुझे सुनाई नहीं दे रहा. ज़रा लिखकर बताइए, ताकि अमिट रहे..और हाँ,लिखने के बाद कहीं  आप ने मनाकर दिया, , तो हम आपको पकड़ लेंगे. आपके लिखे कमेन्ट के माध्यम से.... ज़रा सोचिये.

Saturday, January 28, 2012

लो बसंत आ ही गया. ..


दुनिया भर की टेंशन, फेसबुक-ट्विटर पर खुद को खोजते, इतनी सारी व्यस्तताओं और उलझनों के बीच हमारे मन का कोई हिस्सा अपने "होने" के एहसास को बचाने की भरसक कोशिश करता है और हमें बार बार ये एहसास कराता है कि हमारे अन्दर कुछ "अनूठा" अभी भी जिंदा है...मरा नहीं है.. हम अभी भी इतने "मेकेनिकल" नहीं हुए है, जितना हम अपने आप को मान लेते है..

और इन्ही तमाम उलझनों और टेंशनो के बीच हमारे मन ने आज खेतो में उगी पीली फसल और उदयपुर की सड़कों पर आँखों में घुस रहे छोटे छोटे कीड़े "मोयला" (जिनसे सब डरते है) ने हमें जाता ही दिया है कि लो ऋतुराज बसंत आ ही गया. यूँ भी देखा जाये तो ये ऋतुएं किसी कलेंडर की मोहताज तो होती नहीं... हमारा मन ही इन्हें समझ जाता है... सर्दी किसी बुझती लौ की तरह अपनी तमाम ताकत का एहसास करवा रही है..तो समझ लो वसंत आ रहा है. वैसे एक बात तो है.. सर्दी-गर्मी-वर्षा..ये ऋतुएं हमारा तन समझता है... पर वसंत की अनुभूति हमारे मन तक होती है.

आज वसंत पंचमी के दिन हमारे उत्तर भारतीय भाई तो पूरे पीले-केसरिया वस्त्र पहने अलग  ही आभा दे रहे होंगे. वीणा- सितार में राग बसंत गूंज रही होंगी.. सितार की बात आई तो बताते चले..हमारे बंगाली भाई आज माँ सरस्वती की पूजा करते हैं. माँ सरस्वती की कृपा हमें कुछ करने का जज्बा जगाती है. पर आज ज्यादा धार्मिक बातें करने का मन नहीं है सो माँ सरस्वती को यहीं प्रणाम...
  दिल दिमाग फुर्सत पाना चाहता है. कड़ाके की ठण्ड से थोड़ी निजात मिली है. खिड़की से अन्दर आने वाली धूप अब थोड़ी थोड़ी चुभने लगी है. वसंत, तुम्हारे आते ही मौसम कसमसाने लगा है. सर्दी का मन तो नहीं है जाने का..बार बार लौट लौट कर अपने होने का एहसास करवा रही है.. प्रकृति ने चारो तरफ पीला-केसरिया रंग उढेल दिया है.. गुनगुनी सर्दी दिल को कुछ ज्यादा ही बैचेन किये दे रही है. मन कह रहा है कि बस कुछ चमत्कार हो जाये और "वो" मेरे पास हो.. दिल के करीब रहने वाले गीत लबों पर आने को बेताब है. मन अपनी चंचलपना पूरी शिद्दत से दिखा रहा है. मौन हैं..चकित है.. कि इस वसंत का एहसान माने, शुक्रिया अदा करें इसका..कि डांट लगायें.. वसंत का आगमन..बहार को देखकर मन उड़ चला है ..फिर से !

                           घर-घर चर्चा हो रही फूलों में इस बार
                           लेकर वसंत आ रहा खुशियों का त्योहार
बहरहाल मन की इन्ही अनसुलझी परतों के बीच ऋतुराज वसंत महाराज तो आ ही गए है. और ये जब जब आते है तो हमें किसी और ही पुरानी दुनिया में ले जाते है. किताबों का बोझ आज भी उतना ही है. बस जब छोटे थे तो "विद्या" पौधे की पत्ती ज़रूर किताबों में छुपा दिया करते थे. पीली सरसों अब उतनी दिखाई नहीं देती. टेरेस पर लगे पौधे पर ज़रूर गुलाब उग आया है. बड़ा सा... पर उसकी पत्तियों को किताब में सहेजना अब उतना अच्छा नहीं लगता. हवा की हलकी खनक आज भी महसूस होती है.
शाम को फतहसागर फिर से जवां लगने लगा है. कुल्हड़ की कोफ़ी रंग जमा रही है. मौसम अलग सा मिज़ाज जता रहा है. मदहोशी फिर से छाने लगी है. वसंत आज हमें फिर से उकसा रहा है, उन पुराने दिनों को फिर से जीने को. आज जब हम अपने आप ही नाराज़ होने लगे है.. उदास ज्यादा और खुश कम होते है..पहले की मदहोशी और आज की मदहोशी के मिज़ाज, सुर और परिभाषाएं, सब बदल गए है. तो आज के दिन कुछ अलग ढंग से वसंत के साथ कुछ अलग हटकर करते है.. पुराने दिनों को ताज़ा करते हुए  अलग ढंग से जीते है. आज खुद से नाराज़ न हो. सबसे कटे हुए, अलगाए हुए उदासीन न बैठे.. बस कुछ ऐसा करें कि ये दिन गुज़र न पाए...आज के खास दिन "मेकेनिकल लाइफ" को अलविदा कह दे.
जिन चीजों को हम कई दिनों से नज़र-अंदाज़ कर रहे थे, उन्हें आज कर ही डालते है. चलिए इसी अंदाज़ में आज ऋतुराज का अभिनन्दन करें... वसंत मनाएं.. दिल को खूब खूब महकने दे..चहकने दे.. आप सभी को इस मनमोहक आनंदित कर देने वाली वसंत ऋतू की बहुत बहुत बधाई...
आपका जीवन हमेशा वासंती रहे...