Friday, June 22, 2012

कश्मीर: दोष किसका ??



डल झील या रेजीडेंसी रोड के श्रीनगर और धारा १४४ से ग्रस्त-त्रस्त डाउन टाउन पुराने इलाके के श्रीनगर में ज़मीं-आसमान का अंतर है. ट्रेफिक दोनों जगह बेतरतीब है.दिलों के हाल दोनों जगह "कन्फ्यूज्ड" है. एक जगह बार बार के शहर-बंद से परेशान मन की "पर्यटन" से कमाई की जद्दोजहद है तो दूसरी जगह "आज़ाद" होने की तमन्ना.
दोनों श्रीनगर में बहुत अंतर है. चुनी हुई सरकार और हुर्रियत के धड़े सब के सब गालियाँ खाते मिलते है. किसी को गुस्सा है कि ओमर अब्दुल्लाह वजीर बनते ही शंकराचार्य पहले क्यों गया.. क्या किसी इस्लाम के बंदे को बुत के सामने सर झुकाने की इजाज़त है? तो कोई इस बात से खफा है कि मीरवाइज का बेटा इंग्लिस्तान में पढाई क्यों कर रहा है जबकि यहाँ के लड़के बेरोजगार है, अनपढ़ है. सभी के अपने किस्से है. अपने दुःख है. हिंदुस्तान-पाकिस्तान और राजनीति से सभी बुरी तरह से खफा है. तिरंगा उन्हें अच्छा नहीं लगता,क्योंकि उसमे सियासत की बू आती है. शेरे कश्मीर शेख अब्दुल्लाह का दिया झंडा भी पसंद नहीं.. क्योंकि उसी के कारन, कहते है, कश्मीर समस्या पैदा हुई. पाकिस्तान के हरे झंडे से परहेज़ नहीं, क्योंकि,कश्मीरी को लगता है, वो इस्लाम की रहनुमाई करता है. पर पाकिस्तान में शामिल होने की बात पर गुस्सा भी.. "अजी मियां, तबाह मुल्क में कौन शामिल होना चाहता है, हम तो आज़ादी चाहते है!"

अपनी जम्मू-कश्मीर यात्रा में चौथे दिन अनंतनाग (यहाँ के बाशिंदे इसे इस्लामाबाद कहते है) होते हुए श्रीनगर पहुंचा. तीसरी बार यहाँ आना हुआ था. ये शहर अपने श्राइन और बगीचों के लिए तो प्रसिद्द रहा है. इस बार श्रीनगर बहुत बदला बदला सा लगा. दीवारों पर जहाँ पहले "इंडिया गो बेक, इन्डियन आर्मी गो बेक" जैसे नारे लिखे नज़र आते थे, वैसा इस बार कुछ नहीं दिखा. नए शहर में से आर्मी को लगभग गायब पाकर आश्चर्य का ठिकाना ना रहा. खुशी भी हुई. क्योंकि पिछले कुछ महीनो से पत्थरबाज़ी की घटनाओं में भी कमी आई थी. जल्द से जल्द शहर घूमने की तमन्ना थी. होटल पहुंचकर हाथ-मुह धोकर निचे आया तो एक बुज़ुर्ग टेबल पर नाश्ता लगाते मिले. " जनाब ! आप कश्मीरी नाश्ता पसंद करेंगे या पंजाबी परांठे, ऑमलेट पेश करू ?" मैं बिना सोचे समझे सवाल दाग देता हूँ  " जनाब ! आपको किसकी गलती लगती है, आम कश्मीरी की या आर्मी की ?" वो अचानक से चौंक जाते है. "आप हिन्दुस्तानी मिडिया से लगते है ?" "जी नहीं, मैं आप ही की तरह आम हिन्दुस्तानी हूँ" मैं उन्हें फिर से कुरेदने की कोशिश करता हूँ. वो मेरा इशारा समझ जाते है. "किसकी गलती बयां करें, यहाँ तो सब के सब कश्मीर को जिंदा निगलने पर आमादा है. अब तो आम कश्मीरी भी सियासत करने लगा है. आज़ादी किसे प्यारी नहीं लगती, पर लगता नहीं कि अब वो दिन आएगा." "अपने ही मुल्क से कैसी आज़ादी ...? आज़ाद होकर आप क्या पा लीजियेगा...? क्या सबूत है कि आर्मी के जाते ही पाकिस्तानी फौज यहाँ नहीं आएगी ?" इतने सारे सवालात सुनकर बुज़ुर्ग मुझे शाम के बाद मिलने की बात कहकर चले जाते है.

मैं डल झील के किनारे खड़ा हूँ. सरकारी बोर्ड लगा है, एक घंटा शिकारे में घूमने के ३०० रुपये. ज्यादा मांगने पर शिकायत करने हेतु फोन नम्बर और इमेल पता भी लिखा है. मैं एक शिकारे के मालिक से बात करता हू. वो बीस मिनिट के पांच सौ मांगता है. मैं उसे शिकायत करने की धमकी देता हूँ. वो हंस देता है. धमकी का कोई असर नहीं. तीन सौ में बीस मिनिट फ़ाइनल. उसका नाम नौशाद है.उम्र तक़रीबन 45-50 के आस पास. वो मुझे डल झील की खासियत बता रहा है. फ्लोटिंग शोपिंग करवा रहा है. कमाल के बगीचे दिखा रहा है. चार चिनार (अब तीन बचे है) की खासियत से रु-ब-रु करवा रहा है. सैकड़ों की संख्या में लगी हॉउस बोट्स की खासियत भी उसे ज़बानी याद है. झील से ही हजरत बल और शंकराचार्य के दर्शन भी करवा दिए. मुझे उस से दोस्ती करने की जल्दी है. दोस्ती होते ही मेरे सवाल फिर से बाहर...
"जनाब! गलती आवाम और आर्मी, दोनों की बराबर है.आर्मी इन्हें चैन से रहने नहीं देती और ये आर्मी को गाली दिए बिना सोते नहीं. रही आज़ादी की बात तो भूल जाइये. आपको क्या लगता है.. इंडिया इतनी आसानी से कश्मीर को छोड़ देगा ? कभी नहीं. ये जन्नत है और जन्नत किसे अच्छी नहीं लगती. कुदरती हिफाज़त बक्शी है कश्मीर को. इन्ही पहाड़ों से  इंडिया को चाइना और पाकिस्तान से हिफाज़त मिलती है. हमारी किस्मत इंडिया के साथ ही लिखी है 'अब'.. "
मैं "अब" सुनकर अवाक् हूँ. मैं नौशाद को दूसरी तरीके से कुरेदता हूँ. "आपका दिल क्या कहता है, आज़ाद होकर कितने दिन जिंदा रह पाएंगे?" वो अपना चप्पू धीमा करके मुझे कहते है " एक हॉउस बोट को बनने में एक करोड का खर्चा आता है" ये मेरे सवाल का जवाब नहीं था....

लाल चौक में आज "कश्मीर बंद" है. कुछ साल पहले आज ही के दिन कुछ कश्मीरी लड़के आर्मी के हाथो "शहीद" (?) कर दिए गए थे. आज उनकी बरसी है. लकड़ी के बने घर और दुकान बंद है. एयरटेल का विज्ञापन शटर पर लिखा है. आर्मी यहाँ अच्छी खासी तादात में है. "सुरजीत कुमार" नाम के एक सिपाही के पास जाता हूँ. उसके पास शानदार एके ४७ है. "सर, ये रशिया में बनती है या चाइना में ?" मेरा इशारा बन्दुक की तरफ है. "हमारी वाली मेड इन इंडिया " वो हंस देता है. हमारी वाली से मतलब ? "दादा, किस चैनल से हो ?" मैं अपना परिचय देता हूँ.  सुरजीत कुमार अस्सी के दशक में ले जाते है. "तब लदाख के रस्ते चाइना से और एलओसी के उस पार से घाटी में एके ४७ सप्लाई की जाती थी. हमारे आर्मी के लोग कश्मीरियों को पांच पांच हज़ार देकर इनसे गन और मेगजीन अपने गांव ले जाते थे. इतनी सस्ती तो पूरे वर्ल्ड में कहीं ना मिले. और ये कौनसी खरीदकर लाते थे. इनका ताऊ फ्री में पहुंचाता था. "
"इनके लिए आज़ादी के क्या मायने है ?" मेरा अगला प्रश्न. "इनके दिमाग का फितूर है. हुर्रियत को पैसा अरब से आ रहा है. और यहाँ की सरकार को दिल्ली से. फ़ोकट का खाने की आदत दोनों को लग गयी है. जनता को "आज़ादी" का लोलीपोप पकड़ा रखा है. मनु भाई ! गधे के आगे गाजर लटकाने वाली कहानी सुनी है ना आपने ! बस वो गाज़र लटकी हुई है कश्मीरी के आगे. देख सब रहे है, खा सकते है नहीं. "

दोपहर हो चुकी है. लंच का वक़्त है. मेरा अगला ठिकाना रेजीडेंसी रोड स्थित "मुग़ल दरबार" रेस्टोरेंट. कश्मीरी खाने के बारे में बहुत सुना है. एक पकी दाढ़ी के इंसान "फाहरुख" मेरा इस्तकबाल करते है. बहुत एहतराम के साथ उनके "सलाम वालेकुम " का जवाब देता हूँ. वे मुझे हर एक डिश के बारे में तफसील से बताते जाते है. हर टेबल पर भीड़ है, फिर भी वे मुझे इतना वक़्त क्यों दे रहे है ? "आप हमारे मेहमान है, कश्मीर के जायके से आपको रु-बरु करवाना पेशा है हमारा." मुझे उनकी स्माइल बहुत पसंद आती है. वाजवान, रोगनजोश, गुश्ताबा, रिसदा, वजा मटन, कश्मीरी पुलाव... बहुत कुछ. इसमें कश्मीरी पुलाव को छोडकर एक भी ऐसा व्यंजन नहीं, जो पहले कभी चखा हो. ला-जवाब, लजीज.. बेहतरीन. "रिसदा की मटन बाल्स को पूरी पूरी रात पकाया जाता है, तब उसमे कश्मीरियत की महक आती है." फाहरुख बताते जा रहे थे. "कश्मीरियत के महक और कहाँ मिलेगी जनाब?" मेरा प्रश्न सुनकर वो चौंक जाते है. फाहरुख ने साठ से ज्यादा बसंत देखे होंगे. "कश्मीरियत की महक तो कब की खो चुकी मियाँ. वो दिन थे जब हमारी बहन-बेटियां आराम से सड़कों पर घूम सकती थी. अब तो ये आर्मी वाले हमारे बच्चो को भी नहीं बख्शते. पत्थर बाज़ी कहाँ हो रही होती है और ये हमारे घर से लडको को उठा के ले जाते है. मेरे छोटे भाई के बच्चे के साथ बहुत बेशर्मी भरा काम किया आर्मी ने. " मैं सिहर उठता हूँ. वाजवान, रोगनजोश का स्वाद काफूर हो जाता है.

अपने होटल की लॉबी में चहल कदमी कर रहा हूँ. कल सुबह द्रास जाना है. उमर नाम का बन्दा रिसेप्शन की कुर्सी पर बैठा है. अच्छा नाम है भाई तुम्हारा. एक क्रिकेटर और एक मुख्यमंत्री,तुम्हारे नाम के. वो शुक्रिया अदा करता है. मैं उसकी एज्युकेशन के बारे में पूछता हूँ. पता चलता है कि वो हाई स्कूल से ज्यादा नहीं पढ़ सका. हिंदी अच्छे से जानता है. लहजा कश्मीरी है. उस से दोस्ती बढाता हूँ. वो मुझे हर बगीचे, उसके "मेडिकेटेड" पानी... सब बताता चला जाता है. पर मेरा मन कहाँ मानने वाला है. " उमर ! क्या तुमने कभी आर्मी पर पत्थर फेंके है ?" मैं सवाल दाग देता हूँ.  वो बहुत बेबाकी से जवाब देता है. "बिलकुल फेंके है मनु भाई." ये जब मा-बहन की गाली देते है तो और क्या करें. " उमर आर्मी को रोबोट कहता है. क्योंकि पत्थर बाजी से बचने के लिए आर्मी के जवान कुछ ऐसा ही पहनकर आते है. "यार राह चलते तो वो गाली नहीं देते होंगे. कुछ तो तुम भी करते होंगे. " उमर का जवाब- "इन्होने क्या क्या नहीं किया.. अगर गिनाने बैठू तो वक़्त का पता नहीं चलेगा.." उमर की आँखों में इतना गुस्सा देखकर मैं बात पलट देता हूँ. पर वो कहाँ मानने वाला था. "दो साल पहले हिन्दुस्तानी मिडिया बता रहा था कि हमको पत्थर मारने के लिए पैसे दिए जाते है. ये बात सरासर गलत है. कौन सौ-पचास के लिए आर्मी की गोली खाने आगे जायेगा ? हम उन पर पत्थर मारते है क्योंकि वो हमारी बहन बेटियों पर गलत निगाह डालते है. मुझे बात पचती नहीं. उमर बोलता जाता है. अमर नाथ में ये शिवसेना वाले ज़मीन लेकर वहाँ मंदिर बनाना चाहते है. क्या आप अपने घर में मंदिर बनाने देंगे?(उसका आशय अमरनाथ श्राइन बोर्ड के उस फैसले की ओर था, जहाँ बालताल में पक्की धर्मशाला निर्माण प्रस्तावित था)मुझे उमर की बातों में सियासत की बू आती है. उमर की बात जारी रहती है. "मैंने नई पल्सर बाइक खरीदी. मैं डाउन टाउन में रहता हूँ. आर्मी मुझे घर से उठाकर ले गयी. बोली कि कल बाइक से जाते वक़्त मैंने आर्मी को गाली दी. मेरी बाइक का हेड लाईट कांच फोड दिया. मुझे मारा सो अलग. तब से घर पर कम ही जाना होता है. एक महीने से बाइक को हाथ भी नहीं लगाया. यही होटल में रहता हूँ. यहाँ कम से कम आर्मी तो नहीं है. वहाँ पुराने शहर में तो सू सू करने जाओ तो भी आर्मी चेक करती है. "
"उमर ! अब तो पत्थर नहीं मारते ना ?" मेरे सवाल जारी रहते है. "कुछ दिन पहले दोस्त की शादी थी. पटाखे फोड रहे थे कि पुलिस आ गयी और दो दोस्तों को उठाकर ले गयी. दोस्त की शादी का मज़ा खतम हो गया. पहले सरकार ने कहा कि सबको पुलिस में नौकरी देंगे, पत्थर मारना छोड़ दो. जब लोग सब खानापूर्ति पूरी करके इंटर-व्यू  देने गए तो उनको बंद करके बहुत मारा. बोले, तुम ही हो पत्थर-बाज़ी करने वाले. "

मेरा मन भारी हो चला है. किस पर विश्वास करू और किस पर नहीं. समझ नहीं आ रहा. दोष भी दूँ तो किसे ? क्या इसी जगह के लिए जहाँगीर से कहा था कि यही स्वर्ग है ?क्या इसे स्वर्ग कहते है ?क्या सारी गलती सिर्फ घाटी में रहने वालो की है ? क्या दिल्ली पाक साफ़ है ? या हुर्रियत और स्थानीय राजनितिक दलों ने सियासत से आगे कदम नहीं बढ़ाया ? आर्मी वाले क्या सच में अपनी भड़ास "निर्दोष" लोगो पर निकालते है ? क्या मिडिया बायस्ड नहीं है ? सवाल बहुत है और समय कम.. कल द्रास में कारगिल वार मेमोरियल भी देखने जाना है और रात बहुत हो चुकी है. अब सब कुछ काले अँधेरे के भरोसे... कल का सवेरा होगा, तब तक के लिए शुभ रात्रि.शब्बा खैर .
(व्यक्तिगत आग्रह पर कुछेक पात्रों के नाम बदल दिए गए है )