Saturday, February 11, 2012

....समझा तो केवल एक औरत!

.समझा तो केवल एक औरत!

कई बार लोग कहते हैं ज़माना बदल गया है। क्या वाकई ऐसा हुआ है? शायद नहीं। मानसिकता बदलने को ज़माने के बदलाव से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। मानसिकता में बदलाव ने आज समाज को कई रास्तों वाले चौराहे पर ला खडा कर दिया है। एक बदलाव जिसका ज़िक्र सबसे करना ज़रूरी, वह है महिलाओं को लेकर पुरुष समाज की सोच में बदलाव का। कहने को तो औरत के कई रूप हैं, माँ-बेटी-बहन से लेकर पत्नी तक, मगर इन रिश्तों से इतर महिलाओं को केवल औरत समझा जाने की परम्परा और मानसिकता ने समाज को विद्रूप बना दिया है। पूरे देश के तमाम हिस्सों के हालात भी कमतर नहीं हैं।

जिस देश ने नारी को देवी का दर्ज़ा दिया था वहाँ अब उन्हें केवल औरत से ज़्यादा कुछ नहीं समझा जा रहा। देश के महत्वपूर्ण पदों पर महिलाओं की मौजूदगी के बावजूद आज ऍन केन्द्र सरकार की नाक के नीचे, जिस दिल्ली की सुरक्षा का ज़िम्मा केन्द्रीय गृह मंत्रालय के पास है, महिलायें महफूज़ नहीं है। हाल के समय में अकेले दिल्ली के आंकड़ों पर गौर करें तो भयावह चित्र सामने आता है। दुधमुंही बच्चियों से लेकर परदादी की उम्र तक की महिलाओं के साथ लगातार घट रहे वीभत्स हादसे किसी की आँखें खोलने के लिए नहीं, बल्कि खुली आँखें नम करने या उन्हें अपने हाथों से फोड़ लेने के लिए प्रेरित करते हैं। ऐसी कई घटनाओं की बानगी सामने है, जिसमें समाज की नपुंसकता साफ़ दिखाई देती है। क्या वाकई हम अपने घर की सुरक्षा के मामले में अपना पुरुषत्व खो बैठे हैं? देश के सर्वोच्च शक्तिशाली पदों पर दमदार महिलायें काबिज हैं, शायद उन्हें अपनी ही कौम की दुर्दशा का भान नहीं है, या हो सकता है कि ज़बरदस्त सुरक्षा वाली उनकी अट्टालिकाओं के कंगूरों के उस पार उन तक यह तस्वीरें नहीं पहुँच पाती हों। एक मासूम-सी जान ‘फलक’ एम्स में जिंदगी और मौत से जूझ रही है। ठीक हो भी गई तो उसका भविष्य क्या होगा, बताना बहुत मुश्किल है। इस बच्ची की कहानी ने देश को झकझोर कर रख दिया है। क्या वाकई इतने निर्मम हो सकते हैं माता-पिता, या पैसे की हवस ने उन्हें इतना अंधा कर दिया है कि वे अपने कलेजे के टुकड़े को देह की मंडी में बेच सकते हैं। हालांकि यह कोई एक फलक की कहानी नहीं है। ऐसी अगणित लड़कियां हैं जिनके साथ हर रोज अमानवीय अत्याचार होता है। कुछ को बमुश्किल न्याय मिल भी जाता है पर अधिकांश सिसकियों में जिंदगी गुजार देती हैं। आधी आबादी की बदहाली के बारे में जनसंख्या संबंधी सरकारी आंकड़े जितने चौंकानेवाले हैं, कहीं उतनी ही भयावह है लोगों की मानसिकता। देश में नारी सशक्तीकरण की चाहे जितनी बातें होती हों, लेकिन हकीकत इसके बिलकुल विपरीत है। बेशक आज दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में महिलाओं ने हर बड़े मोर्चे संभाल रखे हों लेकिन आजादी के बाद से देश में महिला-पुरु ष अनुपात में तेजी से गिरावट आई है। आंकड़ों के मुताबिक देश में 1000 बालकों के मुकाबले केवल 914 बालिकाएं हैं। एक तरफ जहां हमारे वेद और शास्त्रों में नारी को पूजे जाने का उपदेश दिया गया है, वहीं हमारे मौजूदा पितृसत्तात्मक समाज में कहीं बेटियों को कोख में ही मार दिया जाता है, तो कहीं सरेआम उसकी अस्मत को बेरहमी से कुचला जाता है। कहीं पुरु ष मनोग्रंथि के चलते, तो कहीं समाज में अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शित करने के लिए स्त्री के शरीर को जागीर समझकर उस पर जुल्म ढाए जाते हैं। समाज पर पुरुष की प्रधानता का इससे बेहतर प्रमाण और क्या हो सकता है कि जितनी भी गालियां प्रचलित हैं वह मां और बहन के अपमान से ही संबंधित हैं। दो साल की मासूम या अस्सी साल की वृद्धा का दोष क्या केवल इतना है कि वे अपनी सुरक्षा खुद कर पाने में नाकाम होती हैं? राजनीति करने वाले भी ऐसे मौकों पर अपनी रोटियां सेंकने का कुत्सित प्रयास करते हैं, लेकिन जब रोटी जलने लगती है तो वे भी पीछे हट जाते हैं। आधी आबादी का दर्ज़ा प्राप्त महिला तबका खुद को आज लुटा हुआ महसूस करता होगा….सामाजिक….राजनीतिक…शारीरिक…..सभी क्षेत्रों में।
(आभार: उपदेश सक्सेना, दिल्ली)

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