Tuesday, December 21, 2010

प्रेम में डूब....

प्यारे मित्र,

तेरा पत्र मिला है.
अच्छा लगा...
मैं कहूँगा,
प्रेम में डूब.
क्योंकि, उसी सागर में डूबने से वह मिलता है,
जिसकी तलाश है.
प्रेम ही एकमात्र धन है.
इस सूत्र की मन में गाँठ बांध ले..
प्रेम नहीं पाया तो कुछ नहीं पाया.
प्रेम गंवाया तो सब कुछ गँवा दिया.
और, प्रेम पा लिया, तो सब पा लिया.
और, तू पा सकती है.

क्योंकि मैं तो तेरी उन गहराईयों को भी जानता हूँ ,
जिन्हें तू नहीं जानती है.
मैं तुझे पहचानता हूँ .

वहां सबको मेरा प्रणाम..

Sunday, December 19, 2010

बापू !!! बड़ी कम्बल लेकर आओ

आज़ादी के इतने साल बाद
पता नहीं क्या सूझी थी बापू को भी
स्वर्ग से उतर आये दिल्ली की सड़कों पर
हाथ  में लिए कम्बल 
और दिल में ये भावनाएं छुपाये
कि शायद ये कम्बल किसी के काम आ जाये...!!
लगता है अभी आदत गयी नहीं थी उनकी परोपकार की...

सड़क पर चलते हुए 
किनारे बैठे एक वृद्ध के कंधे पर
रखकर अपना दयालु हाथ
बोले बापू विनय के साथ !!
"भाई रख लो ये कम्बल...तुम्हारे काम आएगी
दिल्ली की भीषण सर्दी से बचाएगी...!!''

उस वृद्ध ने चुटकी ली,
"मुझे मालुम था बापू !!
तुम ज़रूर आओगे
अपने सपनो के भारत को देख जाओगे...
लेकिन ये क्या, लाये तो भी क्या लाये ??
एक कम्बल तोहफे में !!

मेरा क्या है बापू, जैसे तैसे चला लूँगा
कम्बल न हो तो प्रदुषण से ही काम चला लूँगा !!!

जाओ इस कम्बल को हमारे नेताओं को दे आओ
इस से पहले कि देश की अस्मिता दम तोड़ दे,
सैकड़ो घोटालों को लपेटकर इस काली कम्बल में,
देस की अस्मिता बचाओ...

या इसे मुंबई ले जाओ
हमारी राखी मल्लिका को दे आओ
इस से पहले कि देश कि आबरू दम तोड़ दे
इण नंगियों को लपेटकर इस कम्बल में
देश कि आबरू बचाओ..!!

अगर इस कम्बल ने सोखने की क्षमता पाई है
तो इसे "नक्सल" में ले जाओ, 
वहां आतंक की बन्दूक ने खून की नदी बहाई है

अगर इस कम्बल को और अधिक लोगों में बाँटना चाहो
तो इसे गरीब लोगों के कफ़न के रूप में आजमाओ
पर मुझे मालूम है बापू
ये कम्बल लाखों लोगों के दर्द को नहीं झेल पायेगी
और आंसुओं की बाढ़ में बह जाएगी..!!

चुप क्यों हो बापू ??
कुछ तो बोलो
मुझे डांटन फटकारो
या फिर  स्वर्ग में जाओ और ....
एक बड़ी कम्बल लेकर आओ
एक बड़ी कम्बल लेकर आओ.....!!!!"

(रचना कई बार मेरे द्वारा मंच पर सुनाई गयी है.)