Monday, March 15, 2010

परमार्थ......

क्या हमें अपने आप से प्यार नहीं है ?  है- यही उत्तर है. हमने शायद खुद से कभी नफरत नहीं की. यही हाल पूरी दुनिया के लोगो का है. सभी को अपने आप से बहुत प्यार है. इस बात से साबित होता है कि मानव के मन में प्यार है. फिर ये प्यार परस्पर एक दुसरे पर न्योछावर क्यों नहीं होता ?  प्यार में कैसी कंजूसी ?  प्यार में कैसी तुलना ?  प्यार में कैसा असंतुलन ?  इसका प्यार उजला... उसका प्यार काला ... यह कैसा विरोधाभास है प्यार में ??
कहीं ऐसा तो नहीं है कि जिसे हम प्यार समझ रहे हैं, वह हमारा स्वार्थ है ?  स्वार्थ में होता है विभाजन का अवगुण. स्वार्थ प्यार की महानता  को शुद्रता में बदलने का अवगुण रखता है. फिर- अगर स्वार्थ में आर्थिक उंच-नीच है तो प्यार का मानव से रत्ती भर भी सम्बन्ध नहीं रहेगा. हाँ- प्रेम ही एक ऐसा धागा है जो स्वार्थ भी कहने लगे- हाँ- मैंने स्वार्थ किया- इश्वर को पाने का स्वार्थ. ऐसे स्वार्थ को पकड़कर  मैं भूल ही गया कि प्यार क्या होता है. मेरा स्वार्थ ही मेरा प्यार बन गया. मुझे मेक्सिको  की एक लोक कथा याद आ रही है. कथा पढ़कर बताना कि यह किस प्रकार का स्वार्थ है ??

एक किसान था. उसकी फसल ओले पड़ने से नष्ट हो गयी. उसकी मदद करने वाला कोई नहीं था. सभी किसानो की थोड़ी कम ज्यादा फसल नष्ट हुई थी. उस किसान को भगवान्  में पूरा भरोसा था. उसने लोगों से सुना था कि भगवान् गरीबों की मदद .  अवश्य करते हैं. किसान ने भगवान् के नाम चिठ्ठी लिखी, चिट्ठी पर स्वर्ग का पता लिखा. और चिट्ठी लेटर  बॉक्स में डाल दी. स्वर्ग के पते वाली चिट्ठी देखकर पोस्ट मास्टर ने चिट्ठी पढ़ ली. लिखा था-
हे दयालु भगवान ! मैरी फसल आपके बरसाए ओलो से नष्ट हो गयी. अतः आपसे प्रार्थना है कि मुझे फसल नष्ट होने का 100 रूपया भुगतान करें. आशा है आप अवश्य मुझ पर कृपा करेंगे. आपका गरीब किसान.
पोस्ट मास्टर को किसान कि चिट्ठी पढ़कर दया आ गयी. उसने इधर उधर से चंदा किया.चंदे में अस्सी रुपये इकठा हुए.पोस्ट मास्टर ने वो  अस्सी रुपये एक लिफाफे में भरकर किसान को भिजवा दिए. किसान ने भगवान् से सौ रुपये मांगे थे, मिले अस्सी ही ...
तब किसान ने हाथ जोड़कर भगवान् से  विनती की- हे भगवान् ! आपने रुपये भेजे...आपका बहुत बहुत धन्यवाद. लेकिन भविष्य में रुपये लिफाफे में भरकर मत भेजना- मनी ऑर्डर  से भेजना. क्योकि ये डाक घर वाले बहुत चोर होते है.तेरे भेजे सौ रुपयों में से इन्होने बीस रुपये चुरा लिए- धन्यवाद.

इस कथा में स्वार्थ भी है. विश्वास भी है.आस्था भी है. दया भी है और सजगता भी है. परन्तु एक अदृश्य प्रेम भी है. मानवता के लिए प्रेम. पोस्ट मास्टर ने गरीब किसान की कारुणिक स्थिति को देखा....प्रभु  के प्रति उसकी भक्ति को देखा...उसने लोगो से सहयता मांगी...लोगों ने भी सहायता की. यहाँ किसी का स्वार्थ नहीं था. बस एक स्वार्थ ज़रूर था...परमार्थ का स्वार्थ.जब हम किसी दीन- दुखी की सेवा करने आगे बढें तो भगवान् हमारा "स्वार्थ" ज़रूर पूरा करता है...
यही मेरा विश्वास है. हे इश्वर ! ऐसा स्वार्थ प्रदान कर जो परमार्थ की प्रेरणा देता है......
ॐ इती श्री ही....

Wednesday, March 03, 2010

आवागमन....

कितने युग बीते आकाश को....
कितने युग बीते धरती को...
कितने युग बीते सूरज को...
कितने युग बीते चन्द्रमा को...
कितने युग बीते मनुष्य को...
कितने युगों से बह रही है नदियाँ...
कितने युगों से हो रही है वर्षा...
कितने युगों से लग रही है भूख...
कितने युगों से लग रही है प्यास....
सर्दी-गर्मी बदली ऋतुएं..
भूकंप-सुनामी-आंधियां-तूफ़ान...
कितने युगों से चल रहा है काल-चक्र
कितने युगों से बह रहा है समय दयान्वान...
कितने युगों इ चल रहा है समय निर्मम...
ये कविता नहीं है...
यह सत्य है
यह हो रहा है युगों से...निरंतर हो रहा है...
जन्म ले रही है मृत्यु
मृत्यु में जी रहा है जीवन...
कहीं मोक्ष में कामना जी रही है...
कहीं विनाश की बिजलियाँ चमक रही है....
चेतावनियाँ देते रहते है आते-जाते मौसम...
सूर्योदय से सूर्यास्त तक घटित हो रहा नित नूतन...
कुछ भी रुका हुआ नहीं...चल रहा सभी कुछ....
हो रहा सब कुछ....
किस सोच में पड़ गए मित्र ?
क्या कष्ट है ?
क्यों हो इतने परेशां ?
ये घुटन कैसी ?
संतोष नहीं है ना ?
क्यों नहीं है ?
सोचो 
उत्तर सोचो
यह आते जाते क्षण भंगुर पल
सब कुछ गमन-आगमन में लगा हुआ
तो इस तरह बैठना उचित है क्या ?
किस आशा में बैठे हो?
किसी चमत्कार की आशा में ?
चमत्कार नहीं हुआ तो ??
फिर उठो
कर्म करो
कर्म को धर्म मान कर उठो
मानव सेवा करो
नारायण सेवा करो
हजारो है दुखी पीड़ित मनुष्य
इन्हें अपना लो
कहीं ऐसा न हो
की जो भूखा हो-वही नारायण हो
तेरी परीक्षा लेने आया हो...
क्या इस परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं होना है ??
लो अभी निर्णय...करो प्रतिज्ञा कर्म की...
कर्म की.....मानव धर्मं की....