Thursday, March 29, 2012

जब जोधपुर नरेश पर पिस्टल तान दी सरदार ने

महाराणा भूपालसिंह थे राजस्थान के पहले महाराज प्रमुख

जब भारत राष्ट्र का  उदय हुआ, उस वक़्त राजस्थान में कुल २२ छोटी बड़ी देसी रियासतें थी. सभी का एकीकरण करना बहुत टेढ़ी खीर था. वजह- सभी रियासतों के राजाओं का मानना था कि उन्हें स्वतंत्र राज्य का दर्जा दिया जाये, क्योंकि उन्हें सदियों से शासन का अनुभव है. तब तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल और उनके सचिब वि.पी. मेनन की कार्य कुशलता से सभी का एकीकरण हो पाया.

प्रथम चरण (18 मार्च 1948)में धौलपुर, अलवर,भरतपुर और करौली रियासतों को मिलकर "मत्स्य संघ" का नाम दिया गया. दूसरे चरण (पच्चीस मार्च 1948) को स्वतंत्र देशी रियासतों कोटा, बूंदी, झालावाड, टौंक, डूंगरपुर, बांसवाडा, प्रतापगढ , किशनगढ और शाहपुरा को मिलकर राजस्थान संघ का नाम दिया गया. इसमें कोटा सबसे बड़ी रियासत थी. अजमेर मेरवाडा पहले ही ब्रिटिशों से भारत सरकार के पास आ चुकी थी.

तीसरा चरण में 18 अप्रेल 1948 को राजस्थान की तत्कालीन सबसे बड़ी रियासत मेवाड़ (उदयपुर) को राजस्थान संघ में शामिल करवाने को बूंदी के महाराव ने राज़ी कर लिया. महाराव बहादुर सिंह नहीं चाहते थें कि उन्हें अपने छोटे भाई महाराव भीमसिंह (कोटा के राजा) की राजप्रमुखता में काम करना पडे, मगर बडे राज्य की वजह से भीमसिंह को राजप्रमुख बनाना तत्कालीन भारत सरकार की मजबूरी थी। जब बात नहीं बनी तो बूंदी के महाराव बहादुर सिंह ने उदयपुर रियासत को पटाया और राजस्थान संघ में विलय के लिए राजी कर लिया। इसके पीछे मंशा यह थी कि बडी रियासत होने के कारण उदयपुर के महाराणा को राजप्रमुख बनाया जाएगा और बूंदी के महाराव बहादुर सिंह अपने छोटे भाई महाराव भीम सिंह के अधीन रहने की मजबूरी से बच जाएगे और इतिहास के पन्नों में यह दर्ज होने से बच जाएगा कि छोटे भाई के राज में बडे भाई ने काम किया। अठारह अप्रेल 1948 को राजस्थान के एकीकरण के तीसरे चरण में उदयपुर रियासत का राजस्थान संघ में विलय हुआ और इसका नया नाम हुआ 'संयुक्त राजस्थान संघ'। माणिक्य लाल वर्मा के नेतृत्व में बने इसके मंत्रिमंडल में उदयपुर के महाराणा भूपाल सिंह को राजप्रमुख बनाया गया, कोटा के महाराव भीमसिंह को वरिष्ठ उपराजप्रमुख बनाया गया। और कुछ इस तरह बूंदी के महाराजा की चाल भी सफल हो गयी।
चौथे चरण (30 मार्च 1949)में भारत सरकार ने अपना ध्यान देशी रियासतों जोधपुर , जयपुर, जैसलमेर और बीकानेर पर लगाया और इन्हें भी शामिल कर लिया और इस प्रकार "वृहद राजस्थान संघ" का निर्माण हुआ. तभी से इस दिवस को "राजस्थान दिवस" के नाम से मनाया जाने लगा. पांचवे और छठे चरण में क्रमशः मत्स्य संघ और सिरोही को राजस्थान में  विलय कर दिया गया.

जब जोधपुर नरेश पर पिस्टल तान दी सरदार ने-
घटना 1949 आरम्भ की है. तब तक जयपुर, जोधपुर को छोडकर बाकी रियासतें राजस्थान में या तो शामिल हो चुकी थी या हामी भर चुकी थी. बीकानेर और जैसलमेर रियासतें जोधपुर नरेश की हाँ पर टिकी हुई थी. जबकि जोधपुर नरेश महाराजा हनुवंत सिंह उस वक़्त जिन्ना के संपर्क में थे. जिन्ना ने हनुवंत सिंह को पाकिस्तान में शामिल होने पर पंजाब- मारवाड सूबे का प्रमुख बनाने का प्रलोभन दिया . जोधपुर से थार के रस्ते लाहोर तक एक रेल लाइन हुआ करती थी, जिस से सिंध और राजस्थान की रियासतों के बीच प्रमुख व्यापार हुआ करता था. जिन्ना ने आजीवन उस रेल लाइन पर जोधपुर के कब्ज़े का प्रलोभन भी  दिया. हनुवंत सिंह लगभग मान गए थे. तब सरदार पटेल जूनागढ़ (तत्कालीन बम्बई और वर्तमान में गुजरात) के मुस्लिम राजा को समझा रहे थे. जैसे ही उनके पास सुचना पहुंची, तत्काल सरदार पटेल हेलिकोप्टर से जोधपुर को रवाना हुए. रस्ते में सिरोही- आबू के पास उनका हेलिकोप्टर खराब हो गया,तो एक रात तक स्थानीय साधनों से सफर करते हुए तत्काल जोधपुर पहुंचे. हनुवंत सिंह सरदार को उम्मेद भवन में देख भौंचक्का रह गया. जब बात टेबल तक पहुंची तो हनुवंत सिंह ने सरदार को धमकाने के उद्देश्य से मेज पर ब्रिटिश पिस्टल रख दी. सरदार ने जोधपुर नरेश को मुस्लिम राष्ट्र में शामिल होने पर होने वाली सारी तकलीफों के बारे में बताया,पर हनुवंत सिंह नहीं माना. उलटे सरदार पर राठोडों को डराने का आरोप लगाकर आसपास बैठे सामंतों को उकसाने का कार्य भी किया.

एक बार स्थिति ऐसी आ गयी कि आख़िरकार सरदार ने पिस्टल उठा ली और हनुवंत की तरफ तानकर कहा कि राजस्थान में विलय पर हस्ताक्षर कीजिये नहीं तो आज हम दो सरदारों  में से एक सरदार नहीं बचेगा. सचिव मेनन सहित उपस्थित सभी सामंत डर गए. आख़िरकार अपनी ना चलने पर हनुवंत सिंह को हस्ताक्षर करने पड़े. और इस प्रकार जोधपुर सहित बीकानेर और जैसलमेर भी राजस्थान में शामिल हो गए. इस घटना के कारन सरदार पटेल ने वृहद राजस्थान के प्रथम महाराज प्रमुख का पद हनुवंत सिंह को ना देकर उदयपुर के महाराणा भूपालसिंह को दिया.
ये घटना आज भी सरदार की सुझबुझ की गवाह है. इसीलिए मुझे आश्चर्य होता है आखिर महात्मा क्योकर नेहरु को प्रधानमंत्री बनाने पर राज़ी हो गए जबकि सरदार के रूप में इतना उपयुक्त विकल्प मौजूद था.
बहरहाल, आप सभी को राजस्थान स्थापना दिवस की बधाई.

Monday, March 19, 2012

"पुलिस वाला गुंडा"


रात्रि साढ़े दस बजे के करीब ट्राफिक पुलिस की क्रेन जयपुर के बाईसगोदाम स्थित "क्रिस्टल पाम" माल आकर रूकती है. क्रेन से एक बच्चा उतरता है.साथ में वर्दीधारी पुलिसकर्मी भी है. बच्चा लोहे की पतली स्केल के माध्यम से "नो पार्किंग" में खड़ी एक कार का मुख्य गेट खोलने की कोशिश करता है.
मुख्य गेट न खुलने की स्थिति में दूसरी तरफ आता है और मात्र तीस सेकण्ड में वह अपनी तकनीक से किसी पेशेवर चोर की भांति गेट खोलने में कामयाब हो जाता है.
 बच्चा अंदर घुस कर "हेंड ब्रेक " हटाता है.  क्रेन आती है, बच्चा कार के आगे क्रेन का हुक लगाता है.  क्रेन कार को उठाकर वहाँ  से चालीस-पचास मीटर दूर ले जाकर खड़ी हो जाती है.
 कार मालिक मेक्डोनाल्ड से दौड़ा हुआ आता है. मैं नजदीक जाता हूँ. पुलिस कर्मी पांच सौ रुपये लेकर कार छोड़ देता है. मुझे फोटो लेता देखकर पास आता है और मोबाइल छीन कर लास्ट वाला फोटो डिलीट कर देता है.

ध्यान देने वाली बात:
बच्चा किसी पेशेवर चोर की तरह एक मिनट से भी कम समय में कार का गेट खोल देता है,जबकि बच्चे की उम्र बारह या चौदह साल होगी. पुलिस कर्मी इस गैर जिम्मेदाराना तरीके से गाड़ी के गेट खुलने तक निगरानी करता है. कार के मालिक से रिश्वत लेकर कार को मुक्त कर देता है. और सबसे बड़ी बात उस वक़्त घडी में रात के साढ़े दस बज रहे होते है. अब इतनी रात कौनसी पुलिस "ऑन ड्यूटी" होती है ?
वैसे पुलिस वाला अपना नाम "राजेश कुमार" बताता है और कार का नंबर है- RJ 14 CB 4814" वाकया 15 मार्च 2012 की रात का है.

Friday, March 16, 2012

(Pictures) आज दशामाता व्रत पूजन



होली के दसवे दिन राजस्थान और गुजरात प्रांत में दशामाता व्रत पूजा का विधान है. सौभाग्यवती महिलाएं ये व्रत अपने पति कि दीर्घ आयु के लिए रखती है. प्रातः जल्दी उठकर आटे से माता पूजन के लिए विभिन्न गहने  और विविध सामग्री बनायीं जाती है. पीपल वृक्ष की छाव में ये पूजा करने की रीत है. कच्चे सूत के साथ पीपल की परिक्रमा की जाती है. तत्पश्चात पीपल को चुनरी ओढाई जाती है. पीपल छाल को "स्वर्ण" समझकर घर लाया जाता है और तिजोरी में सुरक्षित रखा जाता है. महिलाएं समूह में बैठकर व्रत से सम्बंधित कहानिया कहती और सुनती है. दशामाता पूजन के पश्चात "पथवारी" पूजी जाती है. पथवारी पूजन घर के समृद्धि के लिए किया जाता है. 
इस दिन नव-विवाहिताओं का श्रृंगार देखते ही बनता है. नव-विवाहिताओं के लिए इस दिन शादी का जोड़ा पहनना अनिवार्य माना गया है. 




















Friday, March 09, 2012

श्री श्री रवि शंकर: मिजाज़ से अलमस्त फकीर

“फलक बोला खुदा के नूर का मैं आशिकाना हूँ..
ज़मीं बोली उन्ही जलवों का मैं भी आस्ताना हूँ..”
नमस्ते जी. आज की बात शुरू करने से पहले तक मुझे हज़ार हिचकियाँ आ चुकी है. इस ख़याल भर से कि आज मुझे इतनी बड़ी शख्सियत की बात करनी है,जिसे देखने को आसमान की तरफ देखना पड़ता है. हाँ जी हां, मैं श्री श्री की बात कर रहा हूँ. श्री श्री रविशंकर साहब की. अजी हुजूरं, हुज़ुरां, आपका हुक्म है, सो उसी को अता फरमा रहा हूँ. वर्ना इतने महान लोगों को याद फरमाने के लिए किसी तारीख के बंधन को मैं नहीं मानता. मगर मन ने न जाने कितनी बार कहा कि मियाँ ! दस मार्च को परवर दिगार झीलों के शहर, हमारे उदयपुर तशरीफ़ ला रहे हैं. सो उनका एहतराम तो करना है. सो लीजिए पेश-ए -खिदमत है.

सोचता हूँ,तो लगता है, हाय ! क्या चीज़ बनायीं है कुदरत ने. अपनी जिंदगी में इस कदर पुरखुलूस और शराफत से लबरेज कि हम जैसो को आप ही अपने गुनाह दिखाई देने लगे. श्री श्री कुछ बोलने को मुह खोले तो लगे घुप्प अँधेरे में चरागाँ हो गया. अकेलेपन का साथी मिल गया. भटकते भटकते रास्ता मिल गया. उदासी को खुशी और दर्द को जुबान मिल गयी. क्या क्या नहीं हुआ और क्या क्या नहीं होता इस एक शफ्फाक, पाक आवाज़ के जादू से. शराफत की हज़ार कहानिया और बेझोड मासूमियत की हज़ार मिसालें. उन्हें याद करो तो एक याद के पीछे हज़ार यादें दौडी चली आती है. सो कोशिश करता हूँ हज़ार हज़ार बार दोहराई गयी बातों से बचते-बचाते हुए बात करूँ…
अब जैसे कि उनकी पैदाइश “आर्ट ऑफ लिविंग” ने हज़ारों-हज़ार की जिंदगियां बदल दी. आवाम गुस्सा भूलकर समाज की तरक्की में शरीक होने लगा. सुदर्शन क्रिया का मिजाज़ देखिये कि अल सुबह बैठकर हर जवान खून “ध्यान” करता है. क्या बंगलुरु और क्या अमेरिका.. सब के सब गुस्सा भूल रहे है. अजी जनाब ! सिर्फ मुस्कुरा ही नहीं रहे, औरों को भी बरकत दे रहे हैं. और श्री श्री … मिजाज़ से अलमस्त ये फकीर..जिसे जब देखो,हँसता रहता है… और कहता है कि तुम भी हँसो… हँसने का कोई पैसा नहीं…कोई किराया नहीं…
आप कह्नेगे भाई ये सारी लप-धप  छोडकर पहले ज़रा कायदे से उदयपुर में होने वाले उनके सत्संग की बात भी कर लो.. तो लो जनाब.. आपका हुक्म बजाते हैं. इस बकत उदयपुर का कोई मंदिर-कोई धर्म स्थल नहीं छूटा, जहाँ आर्ट ऑफ लिविंग के भजन न गूंजे हो. “जय गुरुदेव” का शंखनाद सुनाई दे रहा है. गली-मोहल्ले,सड़क-चौराहे के हर कोने में “आशीर्वाद” बरसाते पोस्टर- होर्डिंग शहर की आबो-हवा में प्यार का नशा घोल रहे है. होली की मस्ती दुगुनी लग रही है. “अच्युतम केशवम राम नारायणं , जानकी वल्लभं, गोविन्दम हरीम..” कानों में मिश्री घोल रहे है. घर घर न्योता भिजवाया गया है. तो मियाँ, आपको भी चुपचाप महीने की दस तारीख को सेवाश्रम के बी.एन. मैदान पर हाजिरी देनी है. समझ गए .! तमाम कोशिशों के बाद पूरे आठ साल बाद वो पाक रूह सरज़मीं-ए-मेवाड़ आ रही है. शुरू हो रहा है एक नया रिश्ता. एक क्या रिश्तों का पूरा ज़खीरा मिल रहा है. सो रहने दो… मैदान में जाकर खुद देख लेंगे. अभी श्री श्री की बाताँ करते हैं. वर्ना ये उदयपुर के बाशिंदों की मेहनत की स्टोरी तो इतनी लंबी है कि इसे सुनते-सुनाते ही मेरा आर्टिकल पूरा हो जायेगा और उपर से आवाज़ आएगी, “चलो मियाँ, भोत फैला ली, अब समेट लो” सो यही पे बस.

इसे कहते है इंसान: 

अक्सर हम लोग इंसान से गिरती हुई इंसानियत को देख देखकर छाती पिटते रहते है. मगर श्री श्री रविशंकर जैसे इंसान की बातें सुनो तो इंसानियत पर भरोसा लौटने लगता है. इस इंसान ने इतनी कामयाबी के बावजूद न तो घमंड को अपने आस पास आने दिया और न दौलत को अपने दिल पर हुकूमत करने दी. ज़रा सोचकर देखे कि इतना कामयाब इंसान कि देश के बड़े बड़े घराने जिसके सामने निचे बैठते है, और अजी घराने ही क्या, कई सारी कंपनियों के पूरे पूरे कुनबे उनको सुनते है.जब वही श्री श्री किसी 5-7 साल के छोटे बच्चे के साथ बैठते है तो बिलकुल बच्चे बन जाते है. शरारती तत्व. मैंने आस्था चेनल के लिए एक शूटिंग श्री श्री के साथ हिमाचल में की थी. वहीँ उनके उस छुपे तत्व को महसूस किया. जहा कोई आडम्बर नहीं, कोई दिखावा नहीं.. सफेद झक एक धोती में एक साधारण किन्तु पवित्र आत्मा. और मज़े की बात. श्री श्री को खुद गाने और भजनों पर नाचने का बहुत शौक है. कई बार स्वयं झूम उठते है. भक्ति-ध्यान-नृत्य-भजन- आनंद का अद्भुत संगम. माशा अल्लाह गजब के उस्ताद है. उस्तादों के उस्ताद,जिन्होंने लाखो करोडो को जीने की दिशा दे दी.
श्री श्री रविशंकर जनाब. उदयपुर की इस खूबसूरत फिजा में आपका तहे दिल से इस्तकबाल. तशरीफ़ लाइए. आज का नौजवां, जो भटक सा रहा है, उसे रास्ता दिखाईये.. वेलकम है जी आपका पधारो म्हारे देस की इस खूबसूरत सर ज़मी पर. मीरा बाई की पुकार सुनी आपने और यहाँ आये…अब हमारी पुकार भी सुन लीजिए. आनंद भर दीजिए. खम्मा घणी….

Monday, March 05, 2012

राजपूतों की आपसी रंजिश का परिणाम- हल्दीघाटी

इतिहास में हम पढते आये है कि अकबर की साम्राज्य विस्तार नीति  के कारन राजपूतों और मुघ्लों के बिच प्रसिद्द हल्दीघाटी का युद्ध लड़ा गया. २१ जून १५७६ को लड़े गए इस युद्ध को राजस्थान का "थर्मोपल्ली" भी कहा जाता है. किन्तु दरअसल कही न कही इतिहासकार कुछ बातों को दबा गए. उन्हें मुग़लों के सामने अपने को एक दिखाने के चक्कर में हकीकत को छुपाना ज्यादा हितकर लगा होगा. हो सकता है आप मेरी बात से सहमत न हो, किन्तु अपनी बात आपके सम्मुख रखना चाहूँगा.
अकबर का मेवाड़ को सम्मन भेजना- सन १५७१  में पहली बार भगवान दास कछवाहा  (आमेर के राजा )जब अकबर की और से दक्षिणी सौराष्ट्र का सफल युद्ध जीतकर पुनः आगरा लौट रहे थे, तब बिच में मेवाड़ सेहोकर गुज़रे. तब तक मेवाड़ को छोडकर अन्य सभी रियासतें,यहाँ तक कि पडोसी हाडोती (कोटा), मालवा (इन्दोर), ग्वालियर, इडर (उत्तरी गुजरात), मेरवाडा (अजमेर), गोडवाड (पाली-सिरोही),मारवाड, वागड(दक्षिणी राजस्थान)सब के सब मुघ्लों की अधीनता स्वीकार कर चुके थे. मेवाड़ की हालत चित्तोड से उदयपुर राजधानी स्थानांतरित करने के साथ ही बहुत क्षीण हो चुकी थी. तब अकबर ने कच्छवाहा को यह जिम्मेदारी सौंपी कि वे प्रताप को समझाए. कच्छवाहा ने समझाया भी किन्तु प्रताप नहीं माने. बात आई गयी हो गयी. उसके बाद अब्दुरहीम खानखाना भी आये. किन्तु कोई हल न निकला. अकबर उस वक़्त दक्षिण में साम्राज्य विस्तार में बहुत अधिक व्यस्त था. ऐसे में उसने मेवाड़ पर खास ध्यान नहीं दिया.

मानसिंह का मेवाड़ आना- असल कहानी यहीं से शुरू होती है. अकबरनामा के अनुसार मानसिंह जबरदस्ती "उड़ते तीर झेलने " की मानसिकता के चलते महाराणा को समझाने मेवाड़ आया. [परदे के पीछे की कहानी ये है कि अपनी बहन "जोधा बाई" का विवाह मुग़ल से करने के बाद उन्हें उस वक़्त जाती-बदर कर दिया गया था,जो उस वक़्त की व्यवस्था का सामान्य हिस्सा था. मेवाड़ के सिसोदिया कुल और जोधपुर के राठोड कुल को राजपूतों में सबसे साफ़ रक्त माना  जाता है.  राठोडों के मुग़लों से मिलने के बाद सिसोदिया एक बड़े कांटे की तरह मानसिंह को चुभ रहे थे.]
मानसिंह के उदयपुर आने पर प्रोटोकोल के अनुसार उन्हें पूरा आथित्य सत्कार दिया गया किन्तु महाराणा प्रताप स्वयं उनसे नहीं मिले. पूरे चार दिन महलों में मानसिंह को पूरा राजकीय सत्कार दिया गया. बात बिगड़ती देख मानसिंह वापस जाने को हुए. तब विदाई की रस्म के चलते उन्हें मेवाड़ राज-सत्ता की और से एक भोज देना था. यह भोज दिया भी गया. किन्तु भोज-स्थल चुना गया मेवाड़ राजधानी की सीमा से बहार स्थित उदयसागर के पाल... (वर्तमान में उदयपुर शहर से १२ किमी दूर)
यहाँ मेवाड़ के सभी १६ उमराव (दरबार के खास ठिकानेदार) इकठ्ठा हुए. भोजन परोस दिया गया,किन्तु प्रताप के स्थान पर उनके पुत्र अमरसिंह भोज में शरीक हुए. मानसिंह के पूछने पर अमर बोले कि प्रताप के पेट में दर्द है. मानसिंह ने जवाब दिया,कि उनके "पेट में क्यों दुःख रहा है",ज्ञात है. मानसिंह बिच भोजन से उठ गया. लौट रहे  मानसिंह और उसके पुत्र को पीछे से राव भीम ने फब्ती कसी कि अगली बार आये तो अपने फूफा (अकबर) को साथ लेकर आना. मानसिंह इस अपमान को कभी भूल नहीं पाया और यही से युद्ध की नीव पड़ी. मानसिंह के जाने के बाद उस स्थान को गौ मूत्र से पवित्र किया गया और जहाँ मानसिंह बैठा था उस स्थान की मिट्टी को खोदकर झील में दाल दिया गया.

अकबर-मानसिंह वार्ता-
आगरा पहुच कर मानसिंह ने अकबर के कान भरे. अकबर प्रताप का बहुत सम्मान करता था. ऐसा कहा जाता है कि उसने मेवाड़ पर आक्रमण से इनकार कर दिया. तब मानसिंह ने दूसरी चाल चली. मानसिंह ने अकबर को बताया कि मेवाड़ के सिसोदिया वंशज "हिंदुआ सूरज" कहलाते है. जब तक राजपूतों के यह सबसे ऊँची गौत्र नहीं झुकती है, आपका सम्पूर्ण राजपूतों को जितने का सपना पूरा नहीं हो पायेगा. इस पर अकबर अपने साले की बात  नहीं टाल पाया और उसी के न्रेतत्व में शाही सेना भेज दी .

हल्दीघाटी युद्ध-
मात्र पांच घंटे चले इस युद्ध का रणस्थल उदयपुर से पेंतीस किमी दूर खमनोर था. खमनोर के पास शाही सेना का पड़ाव था. आज उस स्थान को शाही बाग  कहते है. यहाँ से आगे का रास्ता एक दर्रे से होकर गुज़रता है. वाही से गुजरते वक़्त राजपूतों और भीलों ने शाही सेना पर आक्रमण किया.२१ जून १५७६ को हुए इस युद्ध में एक बारगी अचानक हुए हमले से मुग़ल काफी पीछे भाग खड़े हुए. इस अफवाह कि अकबर और सेना लेकर अजमेर से आ गया है, भागती सेना रुक गयी और रक्त तलायी नामक स्थान पर पुनः युद्ध हुआ. प्रताप का प्रिय घोडा चेटक मारा गया,किन्तु उसने अपने स्वामी की जन बचायी.
युद्ध अनिर्णीत खत्म हो गया. न किसी की हार हुई न ही जीत. क्योकि हार-जीत के लिए किसी एक सेना के प्रमुख का पकड़ा जाना या मारा जाना आवश्यक था. इस युद्ध के बाद प्रताप ने भीष्म प्रतिज्ञा ली और काफि वर्षों तक जंगलों में वास किया.

इस युद्ध से अकबर काफी खफा था. हल्दीघाटी के बाद उसने मेवाड़ पर एक भी हमला नहीं किया. तब तक सभी किले मुघ्लों के पास जा चुके थे. बाद में प्रताप ने एक एक करके सभी किले वापस जीत लिए (चित्तोड को छोडकर ) किन्तु तब भी मुघ्लों ने पुनः युद्ध नहीं किया. इस बात का प्रमाण आमेर, मेवाड़ के इतिहास के साथ साथ अकबर नामा और आईने-अकबरी में भी मिलता है. साथ ही साथ आगरा दरबार में मानसिंह का ओहदा भी कम कर दिया गया.
मूल तथ्य यही है कि इस युद्ध का मुख्य कारक सिर्फ और सिर्फ मान सिंह का अहम था. राजपूत खून का मुग़ल के साथ ब्याहना उस वक़्त राजपूत समुदाय को नागवार गुज़रा,जिस से जगह जगह मानसिंह को बिरादरी में अपमानित होना पडा. इसी वजह से उसने राजपूतों के सबसे ऊँचे कुल को निचा दिखने की ठानी और परिणाम हल्दीघाटी के रूप में सामने आया.
इतिहासकारों ने राजपूत नाक बचाने के एवज में सारा का सारा दोषारोपण मुघ्लों पर किया.