Monday, March 05, 2012

राजपूतों की आपसी रंजिश का परिणाम- हल्दीघाटी

इतिहास में हम पढते आये है कि अकबर की साम्राज्य विस्तार नीति  के कारन राजपूतों और मुघ्लों के बिच प्रसिद्द हल्दीघाटी का युद्ध लड़ा गया. २१ जून १५७६ को लड़े गए इस युद्ध को राजस्थान का "थर्मोपल्ली" भी कहा जाता है. किन्तु दरअसल कही न कही इतिहासकार कुछ बातों को दबा गए. उन्हें मुग़लों के सामने अपने को एक दिखाने के चक्कर में हकीकत को छुपाना ज्यादा हितकर लगा होगा. हो सकता है आप मेरी बात से सहमत न हो, किन्तु अपनी बात आपके सम्मुख रखना चाहूँगा.
अकबर का मेवाड़ को सम्मन भेजना- सन १५७१  में पहली बार भगवान दास कछवाहा  (आमेर के राजा )जब अकबर की और से दक्षिणी सौराष्ट्र का सफल युद्ध जीतकर पुनः आगरा लौट रहे थे, तब बिच में मेवाड़ सेहोकर गुज़रे. तब तक मेवाड़ को छोडकर अन्य सभी रियासतें,यहाँ तक कि पडोसी हाडोती (कोटा), मालवा (इन्दोर), ग्वालियर, इडर (उत्तरी गुजरात), मेरवाडा (अजमेर), गोडवाड (पाली-सिरोही),मारवाड, वागड(दक्षिणी राजस्थान)सब के सब मुघ्लों की अधीनता स्वीकार कर चुके थे. मेवाड़ की हालत चित्तोड से उदयपुर राजधानी स्थानांतरित करने के साथ ही बहुत क्षीण हो चुकी थी. तब अकबर ने कच्छवाहा को यह जिम्मेदारी सौंपी कि वे प्रताप को समझाए. कच्छवाहा ने समझाया भी किन्तु प्रताप नहीं माने. बात आई गयी हो गयी. उसके बाद अब्दुरहीम खानखाना भी आये. किन्तु कोई हल न निकला. अकबर उस वक़्त दक्षिण में साम्राज्य विस्तार में बहुत अधिक व्यस्त था. ऐसे में उसने मेवाड़ पर खास ध्यान नहीं दिया.

मानसिंह का मेवाड़ आना- असल कहानी यहीं से शुरू होती है. अकबरनामा के अनुसार मानसिंह जबरदस्ती "उड़ते तीर झेलने " की मानसिकता के चलते महाराणा को समझाने मेवाड़ आया. [परदे के पीछे की कहानी ये है कि अपनी बहन "जोधा बाई" का विवाह मुग़ल से करने के बाद उन्हें उस वक़्त जाती-बदर कर दिया गया था,जो उस वक़्त की व्यवस्था का सामान्य हिस्सा था. मेवाड़ के सिसोदिया कुल और जोधपुर के राठोड कुल को राजपूतों में सबसे साफ़ रक्त माना  जाता है.  राठोडों के मुग़लों से मिलने के बाद सिसोदिया एक बड़े कांटे की तरह मानसिंह को चुभ रहे थे.]
मानसिंह के उदयपुर आने पर प्रोटोकोल के अनुसार उन्हें पूरा आथित्य सत्कार दिया गया किन्तु महाराणा प्रताप स्वयं उनसे नहीं मिले. पूरे चार दिन महलों में मानसिंह को पूरा राजकीय सत्कार दिया गया. बात बिगड़ती देख मानसिंह वापस जाने को हुए. तब विदाई की रस्म के चलते उन्हें मेवाड़ राज-सत्ता की और से एक भोज देना था. यह भोज दिया भी गया. किन्तु भोज-स्थल चुना गया मेवाड़ राजधानी की सीमा से बहार स्थित उदयसागर के पाल... (वर्तमान में उदयपुर शहर से १२ किमी दूर)
यहाँ मेवाड़ के सभी १६ उमराव (दरबार के खास ठिकानेदार) इकठ्ठा हुए. भोजन परोस दिया गया,किन्तु प्रताप के स्थान पर उनके पुत्र अमरसिंह भोज में शरीक हुए. मानसिंह के पूछने पर अमर बोले कि प्रताप के पेट में दर्द है. मानसिंह ने जवाब दिया,कि उनके "पेट में क्यों दुःख रहा है",ज्ञात है. मानसिंह बिच भोजन से उठ गया. लौट रहे  मानसिंह और उसके पुत्र को पीछे से राव भीम ने फब्ती कसी कि अगली बार आये तो अपने फूफा (अकबर) को साथ लेकर आना. मानसिंह इस अपमान को कभी भूल नहीं पाया और यही से युद्ध की नीव पड़ी. मानसिंह के जाने के बाद उस स्थान को गौ मूत्र से पवित्र किया गया और जहाँ मानसिंह बैठा था उस स्थान की मिट्टी को खोदकर झील में दाल दिया गया.

अकबर-मानसिंह वार्ता-
आगरा पहुच कर मानसिंह ने अकबर के कान भरे. अकबर प्रताप का बहुत सम्मान करता था. ऐसा कहा जाता है कि उसने मेवाड़ पर आक्रमण से इनकार कर दिया. तब मानसिंह ने दूसरी चाल चली. मानसिंह ने अकबर को बताया कि मेवाड़ के सिसोदिया वंशज "हिंदुआ सूरज" कहलाते है. जब तक राजपूतों के यह सबसे ऊँची गौत्र नहीं झुकती है, आपका सम्पूर्ण राजपूतों को जितने का सपना पूरा नहीं हो पायेगा. इस पर अकबर अपने साले की बात  नहीं टाल पाया और उसी के न्रेतत्व में शाही सेना भेज दी .

हल्दीघाटी युद्ध-
मात्र पांच घंटे चले इस युद्ध का रणस्थल उदयपुर से पेंतीस किमी दूर खमनोर था. खमनोर के पास शाही सेना का पड़ाव था. आज उस स्थान को शाही बाग  कहते है. यहाँ से आगे का रास्ता एक दर्रे से होकर गुज़रता है. वाही से गुजरते वक़्त राजपूतों और भीलों ने शाही सेना पर आक्रमण किया.२१ जून १५७६ को हुए इस युद्ध में एक बारगी अचानक हुए हमले से मुग़ल काफी पीछे भाग खड़े हुए. इस अफवाह कि अकबर और सेना लेकर अजमेर से आ गया है, भागती सेना रुक गयी और रक्त तलायी नामक स्थान पर पुनः युद्ध हुआ. प्रताप का प्रिय घोडा चेटक मारा गया,किन्तु उसने अपने स्वामी की जन बचायी.
युद्ध अनिर्णीत खत्म हो गया. न किसी की हार हुई न ही जीत. क्योकि हार-जीत के लिए किसी एक सेना के प्रमुख का पकड़ा जाना या मारा जाना आवश्यक था. इस युद्ध के बाद प्रताप ने भीष्म प्रतिज्ञा ली और काफि वर्षों तक जंगलों में वास किया.

इस युद्ध से अकबर काफी खफा था. हल्दीघाटी के बाद उसने मेवाड़ पर एक भी हमला नहीं किया. तब तक सभी किले मुघ्लों के पास जा चुके थे. बाद में प्रताप ने एक एक करके सभी किले वापस जीत लिए (चित्तोड को छोडकर ) किन्तु तब भी मुघ्लों ने पुनः युद्ध नहीं किया. इस बात का प्रमाण आमेर, मेवाड़ के इतिहास के साथ साथ अकबर नामा और आईने-अकबरी में भी मिलता है. साथ ही साथ आगरा दरबार में मानसिंह का ओहदा भी कम कर दिया गया.
मूल तथ्य यही है कि इस युद्ध का मुख्य कारक सिर्फ और सिर्फ मान सिंह का अहम था. राजपूत खून का मुग़ल के साथ ब्याहना उस वक़्त राजपूत समुदाय को नागवार गुज़रा,जिस से जगह जगह मानसिंह को बिरादरी में अपमानित होना पडा. इसी वजह से उसने राजपूतों के सबसे ऊँचे कुल को निचा दिखने की ठानी और परिणाम हल्दीघाटी के रूप में सामने आया.
इतिहासकारों ने राजपूत नाक बचाने के एवज में सारा का सारा दोषारोपण मुघ्लों पर किया.

2 comments:

  1. क्यों लोगो को बहका रहे हो अकबर क्या था हम जानते है कहा राणा प्रताप और कहा अकबर।अकबर को सत्ता की भूख थी इसलिए उसने मेवाड़ पर हमला किया फिर भी राणा प्रताप ने मुगलों के नकोचने दबा दिए कहा अकबर की 85000 की सेना और कहा मुठी भर 20000 की मेवाड़ी सेना ऐसा था अकबर और राणा का शीश कभी उस मुग़ल के सामने नहीं झुका।।।।
    अगर मुग़ल सच्चे थे तो क्यों हमले किये राजपूताने पर उसे सत्ता की भूख थी अगर वो देश भक्त होता तो दिल्ली तक ही रहता। क्यों पिता सम्मान बेरम खान को मारता

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  2. akavar madarchod kayar tha aur gaddar bhi ushane to apne guru saman senapati beram khan ko bhi marba diya tha aur uski bidhava patni se sadi ki thi javarjasti
    piche se baar karta tha harami sare rajputon ko apas me sadyantra ke dwara bhida diya kamine ne uski ma ko chodun..........
    jay ekling ji........jay mevad.....jay maharana pratap............

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