Monday, April 04, 2011

ये नया भारत है.... इसे अपने बाजुओं पर भरोसा है...

दुनिया की दो सर्वश्रेष्ठ टीमें.. . दोनों ने एक एक बार विश्व कप को चूमा है. दोनों को जितना था अपने अपने महानतम खिलाडियों के लिए. भारत को सचिन के लिए, लंका को मुरली के लिए. दोनों कप्तान विकेटकीपर. पर किस्मत मेच के पहले ही संगकारा के साथ हो ली. धोनी का जीता हुआ टॉस बेजा गया. और दुबारा टॉस होने पर संगकारा की झोली में गिरा. दर्शकों ने इस अपशकुन को भुलाया नहीं था कि देखते ही देखते लंका ने 275 रन का पहाड़ खड़ा कर दिया...
उस पर मुसीबत का पहाड़ ये कि सहवाग और सचिन...जिनसे बेहतर उम्मीद थी...देखते ही देखते पेवेलियन चले गए...कहावत है कि वेल बिगन ईज  हाफ  डन..यानि अच्छी शुरुआत ही आधी जीत होती है..इस हिसाब से हम आधा हार चुके थे. 31 रन और दो शेर ढेर... अब जिम्मेदारी युवाओं के कंधो पर थी...
साँसे बार बार रूकती रही...कलेजा मुह तक आता रहा...गंभीर और धोनी ने ने मिलकर 121 करोड़ दिलों की धडकनों को धीरे धीरे सामान्य करने की कोशिश की. गंभीर सहज रहे और अगले २० ओवर तक  थमे रहे. संगकारा ने किले बनाये, चक्रव्यूह रचे...अपने बेहतरीन आक्रमण का इस्तेमाल किया..गंभीर 97  रन  बनाकर लौट गए...युवी आये...आखिर में चार रन बनाने थे कि....धोनी ने छक्के से विजय गाथा लिख दी...
किस्मत के छक्के छूट गए. वर्ना विरोधी टीम को आखिरी दस ओवर में चोक करने में लंका का कोई मुकाबला नहीं.उसके पास मलिंगा जैसी रफ़्तार है. मुरली जैसा छल. क्या नहीं था संगकारा के पास और क्या था धोनी के पास...?? सच ये है की धोनी के पास लक्ष्य था...स्पष्ट. और उस लक्ष्य के खातिर बहाने को बहुत सारा पसीना. पसीने का कोई पर्याय नहीं...किस्मत का है.
121 करोड़ आत्माओं में गूंजती प्रार्थनाएं,और होठों पर बुदबुदाते दरूद शरीफ अगर ग्यारह लोगो में प्रवेश कर जाये तो शायद ही उसका कोई पर्याय हो...
सचिन दस साल के थे जब भारत ने विश्व कप जीता था. छ विश्व कप उन्होंने खुद खेले पर किस्मत हर बार उन्हें छलती रही. ये उनका संभावित आखिरी मेच था..सो टीम ने किस्मत को छलकर उन्हें ज़िन्दगी की सबसे बड़ी ख़ुशी दे दी....
**यह आलेख दैनिक भास्कर समाचार पत्र में प्रकाशित हो चुका है.**

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