महाराणा भूपालसिंह थे राजस्थान के पहले महाराज प्रमुख
जब भारत राष्ट्र का उदय हुआ, उस वक़्त राजस्थान में कुल २२ छोटी बड़ी देसी रियासतें थी. सभी का एकीकरण करना बहुत टेढ़ी खीर था. वजह- सभी रियासतों के राजाओं का मानना था कि उन्हें स्वतंत्र राज्य का दर्जा दिया जाये, क्योंकि उन्हें सदियों से शासन का अनुभव है. तब तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल और उनके सचिब वि.पी. मेनन की कार्य कुशलता से सभी का एकीकरण हो पाया.
प्रथम चरण (18 मार्च 1948)में धौलपुर, अलवर,भरतपुर और करौली रियासतों को मिलकर "मत्स्य संघ" का नाम दिया गया. दूसरे चरण (पच्चीस मार्च 1948) को स्वतंत्र देशी रियासतों कोटा, बूंदी, झालावाड, टौंक, डूंगरपुर, बांसवाडा, प्रतापगढ , किशनगढ और शाहपुरा को मिलकर राजस्थान संघ का नाम दिया गया. इसमें कोटा सबसे बड़ी रियासत थी. अजमेर मेरवाडा पहले ही ब्रिटिशों से भारत सरकार के पास आ चुकी थी.
तीसरा चरण में 18 अप्रेल 1948 को राजस्थान की तत्कालीन सबसे बड़ी रियासत मेवाड़ (उदयपुर) को राजस्थान संघ में शामिल करवाने को बूंदी के महाराव ने राज़ी कर लिया. महाराव बहादुर सिंह नहीं चाहते थें कि उन्हें अपने छोटे भाई महाराव भीमसिंह (कोटा के राजा) की राजप्रमुखता में काम करना पडे, मगर बडे राज्य की वजह से भीमसिंह को राजप्रमुख बनाना तत्कालीन भारत सरकार की मजबूरी थी। जब बात नहीं बनी तो बूंदी के महाराव बहादुर सिंह ने उदयपुर रियासत को पटाया और राजस्थान संघ में विलय के लिए राजी कर लिया। इसके पीछे मंशा यह थी कि बडी रियासत होने के कारण उदयपुर के महाराणा को राजप्रमुख बनाया जाएगा और बूंदी के महाराव बहादुर सिंह अपने छोटे भाई महाराव भीम सिंह के अधीन रहने की मजबूरी से बच जाएगे और इतिहास के पन्नों में यह दर्ज होने से बच जाएगा कि छोटे भाई के राज में बडे भाई ने काम किया। अठारह अप्रेल 1948 को राजस्थान के एकीकरण के तीसरे चरण में उदयपुर रियासत का राजस्थान संघ में विलय हुआ और इसका नया नाम हुआ 'संयुक्त राजस्थान संघ'। माणिक्य लाल वर्मा के नेतृत्व में बने इसके मंत्रिमंडल में उदयपुर के महाराणा भूपाल सिंह को राजप्रमुख बनाया गया, कोटा के महाराव भीमसिंह को वरिष्ठ उपराजप्रमुख बनाया गया। और कुछ इस तरह बूंदी के महाराजा की चाल भी सफल हो गयी।
चौथे चरण (30 मार्च 1949)में भारत सरकार ने अपना ध्यान देशी रियासतों जोधपुर , जयपुर, जैसलमेर और बीकानेर पर लगाया और इन्हें भी शामिल कर लिया और इस प्रकार "वृहद राजस्थान संघ" का निर्माण हुआ. तभी से इस दिवस को "राजस्थान दिवस" के नाम से मनाया जाने लगा. पांचवे और छठे चरण में क्रमशः मत्स्य संघ और सिरोही को राजस्थान में विलय कर दिया गया.
जब जोधपुर नरेश पर पिस्टल तान दी सरदार ने-
घटना 1949 आरम्भ की है. तब तक जयपुर, जोधपुर को छोडकर बाकी रियासतें राजस्थान में या तो शामिल हो चुकी थी या हामी भर चुकी थी. बीकानेर और जैसलमेर रियासतें जोधपुर नरेश की हाँ पर टिकी हुई थी. जबकि जोधपुर नरेश महाराजा हनुवंत सिंह उस वक़्त जिन्ना के संपर्क में थे. जिन्ना ने हनुवंत सिंह को पाकिस्तान में शामिल होने पर पंजाब- मारवाड सूबे का प्रमुख बनाने का प्रलोभन दिया . जोधपुर से थार के रस्ते लाहोर तक एक रेल लाइन हुआ करती थी, जिस से सिंध और राजस्थान की रियासतों के बीच प्रमुख व्यापार हुआ करता था. जिन्ना ने आजीवन उस रेल लाइन पर जोधपुर के कब्ज़े का प्रलोभन भी दिया. हनुवंत सिंह लगभग मान गए थे. तब सरदार पटेल जूनागढ़ (तत्कालीन बम्बई और वर्तमान में गुजरात) के मुस्लिम राजा को समझा रहे थे. जैसे ही उनके पास सुचना पहुंची, तत्काल सरदार पटेल हेलिकोप्टर से जोधपुर को रवाना हुए. रस्ते में सिरोही- आबू के पास उनका हेलिकोप्टर खराब हो गया,तो एक रात तक स्थानीय साधनों से सफर करते हुए तत्काल जोधपुर पहुंचे. हनुवंत सिंह सरदार को उम्मेद भवन में देख भौंचक्का रह गया. जब बात टेबल तक पहुंची तो हनुवंत सिंह ने सरदार को धमकाने के उद्देश्य से मेज पर ब्रिटिश पिस्टल रख दी. सरदार ने जोधपुर नरेश को मुस्लिम राष्ट्र में शामिल होने पर होने वाली सारी तकलीफों के बारे में बताया,पर हनुवंत सिंह नहीं माना. उलटे सरदार पर राठोडों को डराने का आरोप लगाकर आसपास बैठे सामंतों को उकसाने का कार्य भी किया.
एक बार स्थिति ऐसी आ गयी कि आख़िरकार सरदार ने पिस्टल उठा ली और हनुवंत की तरफ तानकर कहा कि राजस्थान में विलय पर हस्ताक्षर कीजिये नहीं तो आज हम दो सरदारों में से एक सरदार नहीं बचेगा. सचिव मेनन सहित उपस्थित सभी सामंत डर गए. आख़िरकार अपनी ना चलने पर हनुवंत सिंह को हस्ताक्षर करने पड़े. और इस प्रकार जोधपुर सहित बीकानेर और जैसलमेर भी राजस्थान में शामिल हो गए. इस घटना के कारन सरदार पटेल ने वृहद राजस्थान के प्रथम महाराज प्रमुख का पद हनुवंत सिंह को ना देकर उदयपुर के महाराणा भूपालसिंह को दिया.
ये घटना आज भी सरदार की सुझबुझ की गवाह है. इसीलिए मुझे आश्चर्य होता है आखिर महात्मा क्योकर नेहरु को प्रधानमंत्री बनाने पर राज़ी हो गए जबकि सरदार के रूप में इतना उपयुक्त विकल्प मौजूद था.
बहरहाल, आप सभी को राजस्थान स्थापना दिवस की बधाई.
जब भारत राष्ट्र का उदय हुआ, उस वक़्त राजस्थान में कुल २२ छोटी बड़ी देसी रियासतें थी. सभी का एकीकरण करना बहुत टेढ़ी खीर था. वजह- सभी रियासतों के राजाओं का मानना था कि उन्हें स्वतंत्र राज्य का दर्जा दिया जाये, क्योंकि उन्हें सदियों से शासन का अनुभव है. तब तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल और उनके सचिब वि.पी. मेनन की कार्य कुशलता से सभी का एकीकरण हो पाया.
प्रथम चरण (18 मार्च 1948)में धौलपुर, अलवर,भरतपुर और करौली रियासतों को मिलकर "मत्स्य संघ" का नाम दिया गया. दूसरे चरण (पच्चीस मार्च 1948) को स्वतंत्र देशी रियासतों कोटा, बूंदी, झालावाड, टौंक, डूंगरपुर, बांसवाडा, प्रतापगढ , किशनगढ और शाहपुरा को मिलकर राजस्थान संघ का नाम दिया गया. इसमें कोटा सबसे बड़ी रियासत थी. अजमेर मेरवाडा पहले ही ब्रिटिशों से भारत सरकार के पास आ चुकी थी.
तीसरा चरण में 18 अप्रेल 1948 को राजस्थान की तत्कालीन सबसे बड़ी रियासत मेवाड़ (उदयपुर) को राजस्थान संघ में शामिल करवाने को बूंदी के महाराव ने राज़ी कर लिया. महाराव बहादुर सिंह नहीं चाहते थें कि उन्हें अपने छोटे भाई महाराव भीमसिंह (कोटा के राजा) की राजप्रमुखता में काम करना पडे, मगर बडे राज्य की वजह से भीमसिंह को राजप्रमुख बनाना तत्कालीन भारत सरकार की मजबूरी थी। जब बात नहीं बनी तो बूंदी के महाराव बहादुर सिंह ने उदयपुर रियासत को पटाया और राजस्थान संघ में विलय के लिए राजी कर लिया। इसके पीछे मंशा यह थी कि बडी रियासत होने के कारण उदयपुर के महाराणा को राजप्रमुख बनाया जाएगा और बूंदी के महाराव बहादुर सिंह अपने छोटे भाई महाराव भीम सिंह के अधीन रहने की मजबूरी से बच जाएगे और इतिहास के पन्नों में यह दर्ज होने से बच जाएगा कि छोटे भाई के राज में बडे भाई ने काम किया। अठारह अप्रेल 1948 को राजस्थान के एकीकरण के तीसरे चरण में उदयपुर रियासत का राजस्थान संघ में विलय हुआ और इसका नया नाम हुआ 'संयुक्त राजस्थान संघ'। माणिक्य लाल वर्मा के नेतृत्व में बने इसके मंत्रिमंडल में उदयपुर के महाराणा भूपाल सिंह को राजप्रमुख बनाया गया, कोटा के महाराव भीमसिंह को वरिष्ठ उपराजप्रमुख बनाया गया। और कुछ इस तरह बूंदी के महाराजा की चाल भी सफल हो गयी।
चौथे चरण (30 मार्च 1949)में भारत सरकार ने अपना ध्यान देशी रियासतों जोधपुर , जयपुर, जैसलमेर और बीकानेर पर लगाया और इन्हें भी शामिल कर लिया और इस प्रकार "वृहद राजस्थान संघ" का निर्माण हुआ. तभी से इस दिवस को "राजस्थान दिवस" के नाम से मनाया जाने लगा. पांचवे और छठे चरण में क्रमशः मत्स्य संघ और सिरोही को राजस्थान में विलय कर दिया गया.
जब जोधपुर नरेश पर पिस्टल तान दी सरदार ने-
घटना 1949 आरम्भ की है. तब तक जयपुर, जोधपुर को छोडकर बाकी रियासतें राजस्थान में या तो शामिल हो चुकी थी या हामी भर चुकी थी. बीकानेर और जैसलमेर रियासतें जोधपुर नरेश की हाँ पर टिकी हुई थी. जबकि जोधपुर नरेश महाराजा हनुवंत सिंह उस वक़्त जिन्ना के संपर्क में थे. जिन्ना ने हनुवंत सिंह को पाकिस्तान में शामिल होने पर पंजाब- मारवाड सूबे का प्रमुख बनाने का प्रलोभन दिया . जोधपुर से थार के रस्ते लाहोर तक एक रेल लाइन हुआ करती थी, जिस से सिंध और राजस्थान की रियासतों के बीच प्रमुख व्यापार हुआ करता था. जिन्ना ने आजीवन उस रेल लाइन पर जोधपुर के कब्ज़े का प्रलोभन भी दिया. हनुवंत सिंह लगभग मान गए थे. तब सरदार पटेल जूनागढ़ (तत्कालीन बम्बई और वर्तमान में गुजरात) के मुस्लिम राजा को समझा रहे थे. जैसे ही उनके पास सुचना पहुंची, तत्काल सरदार पटेल हेलिकोप्टर से जोधपुर को रवाना हुए. रस्ते में सिरोही- आबू के पास उनका हेलिकोप्टर खराब हो गया,तो एक रात तक स्थानीय साधनों से सफर करते हुए तत्काल जोधपुर पहुंचे. हनुवंत सिंह सरदार को उम्मेद भवन में देख भौंचक्का रह गया. जब बात टेबल तक पहुंची तो हनुवंत सिंह ने सरदार को धमकाने के उद्देश्य से मेज पर ब्रिटिश पिस्टल रख दी. सरदार ने जोधपुर नरेश को मुस्लिम राष्ट्र में शामिल होने पर होने वाली सारी तकलीफों के बारे में बताया,पर हनुवंत सिंह नहीं माना. उलटे सरदार पर राठोडों को डराने का आरोप लगाकर आसपास बैठे सामंतों को उकसाने का कार्य भी किया.
एक बार स्थिति ऐसी आ गयी कि आख़िरकार सरदार ने पिस्टल उठा ली और हनुवंत की तरफ तानकर कहा कि राजस्थान में विलय पर हस्ताक्षर कीजिये नहीं तो आज हम दो सरदारों में से एक सरदार नहीं बचेगा. सचिव मेनन सहित उपस्थित सभी सामंत डर गए. आख़िरकार अपनी ना चलने पर हनुवंत सिंह को हस्ताक्षर करने पड़े. और इस प्रकार जोधपुर सहित बीकानेर और जैसलमेर भी राजस्थान में शामिल हो गए. इस घटना के कारन सरदार पटेल ने वृहद राजस्थान के प्रथम महाराज प्रमुख का पद हनुवंत सिंह को ना देकर उदयपुर के महाराणा भूपालसिंह को दिया.
ये घटना आज भी सरदार की सुझबुझ की गवाह है. इसीलिए मुझे आश्चर्य होता है आखिर महात्मा क्योकर नेहरु को प्रधानमंत्री बनाने पर राज़ी हो गए जबकि सरदार के रूप में इतना उपयुक्त विकल्प मौजूद था.
बहरहाल, आप सभी को राजस्थान स्थापना दिवस की बधाई.