एक संस्मरण........
"उन दिनों घर की आर्थिक स्थिति कुछ ठीक नहीं थी. पापा को गुज़रे तीन साल से ज्यादा हो गए थे. मम्मी की कुछ मदद हो जाये,इसी चाह में स्कूल से आने के बाद एक मेडिकल स्टोर पर पार्ट टाइम जॉब करने लगा . दिन यु ही गुज़र बसर हो रहे थे.
मेडिकल स्टोर उदयपुर के एक जाने-माने क्षय रोग विशेषज्ञ डॉक्टर के घर के पास था.मेडिकल स्टोर पर हेल्पर की पोस्ट के अलावा मेरा मुख्य काम था- "रोगियों के शॉप तक लाना." मैं डॉक्टर के घर के बाहर खड़ा रहता और जैसे ही कोई मरीज़ बाहर निकलता, मैं उस से चिपक जाता...मीठी मीठी बातें करते , सहानुभूति जताते मैं उसे शॉप तक ले आता. ..( "लपका" शब्द का प्रयोग तब चलन में नहीं था.)शायद समय की मुताबिक "व्यवहार प्रवणता" का पाठ वही से सिखने को मिला था.कई मरीजों से तो निजी पहचान हो जाया करती थी और वे ठीक हो जाने के बाद भी मिलने आया करते थे... समय गुज़र रहा था.
उस दिन भी मैं आम दिनों की तरह डॉक्टर साहब के घर के बाहर उनके नौकर से बतिया रहा था, जो मरीजों को टोकन देता था. मरीजों की तादाद ठीक ठाक थी. कोने में बैठे एक मरीज़ पर बार बार ध्यान जा रहा था. पतला लम्बा चहरा, सर पर ३-४ महीने के बाल, शेविंग बनाये शायद कितना वक़्त बीता होगा, ये उसे भी मालूम नहीं होगा..कपड़ो की स्थिति नोर्मल थी.हालात से साफ़ ज़ाहिर था, स्थिति दयनीय थी.एक रोगी को शॉप छोड़कर आया तो वही " परिचित" डॉक्टर के घर से कुछ आगे सड़क किनारे बैठा मिला. साथ में उसकी पत्नी थी, जो भी पति के सामान ही दुबली पतली काया वाली थी.शायद हालातो के कारन उम्र दुगुनी लग रही हो....
मैं आम रूटीन से उनके पास गया और बातें करने लगा.उसने बताया कि डॉक्टर साहब ने टी. बी. अस्पताल में भर्ती होने को कहा है. उसे बस स्टैंड तक जाना है...पर बीमारी की वजह से सांस की तकलीफ है. इतनी शक्ति नहीं कि ज्यादा लम्बी दुरी तक चल सके. मेरे पास साइकिल थी. मैंने उसे पीछे बिठाया और वाया शॉप ( कुछ दुरी पर स्थित ) बस स्टॉप पर छोड़ने की बात कही. राह में बात करते हुए उसने अपना नाम बसंत बताया.पास ही शिवखेडी गाँव का रहने वाला. पिछले सालभर से सांस भर आती थी. दम की बीमारी लग रही थी.घर में बेटी का मांडना (विवाह ) था, सो बीमारी के बारे में ज्यादा सोच नहीं पाया,यहाँ तक कि मुह से निकली खून की उलटी तक को ज्यादा तवज्जो नहीं दी. अब हालत ज्यादा ख़राब हुई तो डॉक्टर साब को दिखाया.
मन द्रवित हो उठा. गरीब लोग किस तरह टाबरी के ब्याह में सब भूल जाते है. ये घातक बीमारियाँ गरीबो को ही क्यों जकड़ती है ???मन सोचने को मजबूर था.. ( तब तक टी.बी. का पूरा इलाज बहुत महंगा होता था और "DOTS" की मुफ्त सेवाएं शुरू नहीं हुई थी..)
बसंतजी ने दवाई खरीदी. ६०० के आस पास बिल था.उनके पास देने को ४०० रुपये ही थे. शॉप वाले भैया उधार दवाई नहीं देते थे, ये मुझे पता था. इतने में मैं देखता हु कि बसंतजी की बीवी अपने गले से सांकली (चांदी का एक पारंपरिक राजस्थानी गहना ) उतारती बोली कि इसे रख ले. भैया कुछ बोलते, इस से पूर्व ही मैं बोल उठा-" नहीं-नहीं काकी, इसकी ज़रूरत नहीं, बचे रुपये जब हो तब दे जाना...मैं देख लूँगा." भैया मेरा मुह देख रहे थे.
दोनों की आँखें भर आई. दवाई लेने की बाद वादे के मुताबिक मैं उन्हें बस स्टॉप तक छोड़ने निकलने लगा. भैया गुस्सा हो रहे थे, आखिर मेरा "उनके लिए कीमती" वक़्त जो बर्बाद हो रहा था. तिस पर २०० रुपये और उधार रख लिए थे, जैसे दुकान मालिक मैं खुद होऊ.
बस स्टॉप पहुँचते ही मैंने बसंतजी को साइकिल से निचे उतारा. उन्होंने निचे उतारते ही मेरे पाँव पकड़ लिए. अचानक घटित इस घटना से मैं चौंक पड़ा,आखिर ४०-४५ साल का अधेड़ एक १५ साल के बच्चे के पाँव क्यों पकड़ रहा है....!!! मैं अस्वाभाविक हो उठा. बसंतजी रोये जा रहे थे.वे मेरा एहसान मान रहे थे.मैंने भरे मन से उन्हें उठाया और बस में बिठा दिया. दोनों ने फिर हाथ जोड़ लिए.
मैं शॉप पर लौट आया. सेवा-दंड के रूप में २०० रुपये तन्खवाह में से काटने का फरमान जारी हो चूका था. मुझे अंदेशा नहीं था. पर फिर भी स्वीकार्यता थी....आत्म-संतुष्ठी का भाव था. घर आकर मम्मी को बताया तो वे भी द्रवित हो उठी. दिन हमारे भी कुछ ठीक नही थे, पर मम्मी ने कुछ भी नहीं कहा.
दिन गुज़रते गए. सभी इस घटना को भूल गए थे. फिर एक दिन अचानक बसंतजी की पत्नी शॉप पर आई. नमस्कार के बाद उसने अपने पल्लू में से ४ टुडे-मुड़े ५०-५० के नोट निकाल कर काउंटर पर रख दिए. वो भार उतारने आई थी. भैया की हालत अजीब थी. वे पहले ही मुझसे "भार" वसूल चुके थे. जबकि उस औरत के हालातों में कोई फर्क नज़र नहीं आता था.
मैंने मना किया पर वो काउंटर पर पैसे रख मुड चली. जाते जाते मैंने उस से बसंतजी की तबियत के बारे में जानना चाहा. वो फिर घूमी और रो पड़ी. आंसुओ ने जवाब दे दिया था. पता चला कि बसंतजी की मौत उसी दिन हो गयी थी, जिस दिन मैं उन्हें बस स्टॉप छोड़ कर आया था. रोते हुए उसने सिर्फ इतना कहा कि " वे मरते मरते आपकी उधारी चुकाने की कह गए थे. रुपये के चाराने उधारी उतारने आई थी."
मैं घर आ गया. मन में बार बार पापाजी का चेहरा याद आ रहा था, तो कभी कभी बसंतजी का चेहरा पापा जैसा प्रतीत हो रहा था. पापा का छोड़ा गया ३ लाख का क़र्ज़ मम्मी ने बड़े आत्मविश्वास के साथ उतारा था.
शाम को मम्मी की गोद में इतने आंसू बहे...... जैसे लगा...पापा इतने दिनों बाद मिलने आये और कुछ पल साथ रहकर फिर चले गए. मम्मी खुद रो रही थी और मुझे सीने से लगाये चुप करने की कोशिश कर रही थी. हम दोनों रो रहे थे, एक ऐसे बसंत के लिए, जो अपरिचित होते हुए भी जाना पहचाना लग रहा था.
इतने दिनों बाद पापा से मिलकर..... बिछुड़ने का गम था....और पापाजी.......हमारे पापाजी की आज ही मौत हुई थी जैसे.....दूसरी मौत........!!!!!!"
मित्र आपका संस्मरण मर्म और प्रेरणा से भरा हुआ लगा, शीर्षक के हिसाब से मै मजाक के मूड मे आया था और सोचा था कि मजाकिया टिप्पणी करूँगा।
ReplyDeleteअपनो से बिछुडने का दर्द बहुत भयानक होता है।
good one.
ReplyDeletekeep it up.
bahut hi marmik sansmaran hai,man dravit ho gaya.aapke likhne ki shaili bahut sundar hai.
ReplyDeletebahut hi achi likhi hai bhai
ReplyDeletebahut sahi likhte ho bhaiya....maza aa gaya...
ReplyDeleteaap sabhi ko dhanyawad...
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