सागर थका हारा रूम पर लौटा। आज अचानक मकान मालिक के दबाव के चलते उसे पुरे ४ घंटे की क्लास अटेंड करनी पड़ी और क्लास के चलते वो मयूर की लंच पार्टी में भी नही जा paya था। ख़ुद से ही खफा हो,ऐसा चेहरा बनाया हुआ......कि.......कोटा में pre-IIT-G की कोचिंग के लिए आये ५-६ माह बीत चुके थे...पर सागर कभी कभी होली-दिवाली ही क्लास अटेंड किया करता था ....
उसे आभास हो चला था कि उसका सलेक्शन नही होने वाला....हो भी तो कैसे.....आज ये पार्टी,कल वो फ़िल्म...बस यह ही ज़िन्दगी थी उसकी ...कोटा में... ।
घर...परिवार..माँ...याद तभी आया करती, जब बैंक खाते में पैसा नही आता था....खैर...खीजते हुए उसने दरवाजा खोला...निचे चिट्ठी पढ़ी थी, शायद माँ की थी..हां माँ की ही थी.......
आखिरी बार जब घर गया था,तो पढ़ाई के सिलसिले में माँ ने खूब "भजन" सुनाये थे...तब से......खैर.....
"प्यारे बिट्टू,
बहुत सारा प्यार !!
कामना है सकुशल होंगे.जब से तुम गए,तुम्हारी याद बहुत परेशां करती रही.अब तक समझ में नही आ रहा कि क्या करू??तुम्हारी चिंता सताती है. जानती hu कि तुम अब बड़े हो गए हो,मुझे तुम्हारी फिक्र नही करनी चाहिए...लेकिन,एक दम से ये भूल नही पाती कि अब तुम्हारी ज़िन्दगी में मेरे अलावा भी बहुत कुछ और है...मन अजीब सी छात्पताहत से भर उठता है.बैचेनी दिल को कसकर मुट्ठी में भींच लेती है.लेकिन होंठ भीड़ में फ़िर मुस्कुराने लगते है.मन ishwar से यही प्रार्थना करता है कि तुम हमेशा खुश रहो..तुम्हारे सपने पूरे हो।
अबकी बार जा तुम आए,तुमसे ढेर साडी बातें करना चाहती थी मैं,लेकिन हमारे तुम्हारे बिच ढेर सारी कदवहतो ने जन्मा ले लिया। तुम कुछ सुनाने को तैयार नही थे और मेरा शायद कहने का तरीका ही ग़लत था.ग़लत मैं कई जगह पर हु। मेरी सोच ग़लत है,मेरी अपेक्षाएं ग़लत है, मेरी चाहत ग़लत है- सब कुछ तो ग़लत है फ़िर सही कुछ हो भी तो कैसे !!!!
मैं बचपन में सोचा करती थी कि आदमी का भाग्य कुछ नही होता..आदमी चाहे तो अपनी म्हणत से अपने हाथ कि लकीरों को बदल सकता है.लेकिन मैं कुछ भी नही बदल सकी। ना अपनी किस्मत और न ही इन हाथ कि लकीरों में कैद अपना भविष्य और वर्तमान। तुमसे कुछ भी तो नही छिपा है। सब कुछ खुली किताब कि तरह तुम्हारे सामने है॥ बुजुर्गो कि मौत के बाद सोचा चलो तुम्हारे पापा तो है। पर जब तुम ७ साल के थे तो तुम्हारे पापा, मुझे और तुम्हे भगवन के भरोसे छोड़ किसी और के साथ....... मैंने सोचा, तुम तो हो। तुम मेरा अपना खून हो,तुमसे काफी अपेक्षाएं थी मुझे...और हैं...
खैर,सबसे पहले मैं तुमसे अपने उस दिन के व्यवहार के लिए माफ़ी चाहती हु। मुझे तुम पर हाथ नही उठाना चाहिए था। माँ-बच्चे का रिश्ता शायद बदती उमर के साथ बदल जाना चाहिए....पर माँ के लिए तो ३ साल के बिट्टू और १८ साल के सागर में कोई अन्तर नही होता न... ।शायद अब मेरा तुम पर हक ख़तम सा हो चला है, विश्वास है तुम मुझे माफ़ करोगे । हाँ ! इत अवश्य चाहती हु कि हमारे बिच स्नेह बना रहे ।
बिट्टू, मैंने जीवन में बहुत संगर्ष किया है। पुरी ज़िन्दगी मैंने दुसरो की उपेक्षा और तिरस्कार सहे है। सभी ने मेरे लिए कठिनाईयां ही पैदा की .ना jane मेरे bhitar ऐसा क्या था कि , जिसने मेरी संघर्ष क्षमता को जीवीत रखा। क्योकि मैं कायर नही थी, इसलिए मर ना सकी । और फ़िर तुम्हे किसके भरोसे छोडती ? लेकिन आज ज़िन्दगी से थकान लगने लगी है। कोई आकर्षण नही रह गया है। साँस साँस बोझिल लगने लगी है।
हाँ...तो मैं कह रही थी कि नि:संदेह तुम्हारी ज़िन्दगी में मेरी कोई जगह न हो, लेकिन इतना अवश्य चाहती हु कि तुम अपने raste से न bhatko। मेहनत करना sikho और manzil pa लो। वरना तुम ज़िन्दगी में बहुत piche रह जाओगे। यदि समय का mulya नही पहचानोगे तो कल समय तुम्हारा मूल्य gavan देगा।
मेरी बात को तुम ये न समझना कि माँ ने कहा है। ये मेरी ज़िन्दगी का तजुर्बा है। मेरा क्या है...मुझे तो अब कुछ पाना भी नही... । तुम ख़ुद समझदार हो।
तुम्हारा बचपन अच्छा गुज़रा। पहले माँ-पापा का और फ़िर सिर्फ़ माँ का ही सही, पर तुम्हे ढेर सारा स्नेह मिला। माँ ने तुम्हारे पीछे अपने सारे दुखो को भुला दिया। अक्सर छोटे में वो तुम्हे खिलाती थी तो गाया करती थी॥
"आ अंगुली पकड़ कर तेरी, मैं तुझको चला सिखाऊ
फ़िर हाथ पकड़ना मेरा, जब बूढी हो जाऊ।"
तुम्हारी एक अजीब सी चिंता मुझे हर पल घेरे रहती है. पता नही मेरे भाग्य में और क्या लिखा है ? तुम्हारे भविष्य कि चिंता मुझे हर दम परेशान करती है, लेकिन मैं सिर्फ़ चटपटा ही पाती हु। जीवन में कभी भी, कही भी, किसी भी viprit परिस्थिति में हमेशा झूझने वाली मैं...यहीं आकर टूट जाती हु। अब तो सब कुछ इश्वर के हाथ छोड़ दिया है। शायद इसके अलवा मेरे पास कोई चारा भी नही रहा।
इतनी साड़ी नसीहतें पढ़ कर तुम्हे ज़रूर गुस्सा आएगा,लेकन ये तुम्हारी माँ नही लिख रही...भरती शर्मा लिख रही है। मेरे और तुम्हारे बिच का रिश्ता अगर सहज न रह पाए, तो मुझे तुम्हारी माँ कहलवाने का कोई हक नही ... । फ़िर भी मैं तुम्हारे हल पल, हर क्षण साथ हूँ। तुम्हारे अच्छे में भी और तुम्हारे बुरे मैं भी।
मेरे रहते तुम्हे कभी अभाव या परेशानी नही देखनी पड़ेगी। ये एक वादा है मेरा। तुम हमेशा मुझे अपने आस-पास पाओगे। हमेशा खुश रहो । मैं चाहती हु कि मैं अपना आत्मा सम्मान बनाये रख पौ, तुम मुझे tna जीवन jine layak doge।
मेरी shubh kamnayein,प्यार dular, आशीर्वाद सभी पर आख़िर तुम्हारा ही तो हक है...
भरती शर्मा।"
sanghya shunya हो सागर उस चिट्ठी को देखे जा रहा था, जो ख़तम हो कर भी शायद shesh थी...शब्दों के ज्वर बार bar उसके मन को उद्वेलित कर रहे थे। तभी बहार दरवाजे पर दस्तक हुई, bahar कुछ दोस्त खड़े थे...."सागर ॐ सिनेप्लेक्स में नई फ़िल्म लगी है.......रिश्ते........चलेगा देखने....."
सागर कुछ देर सोचने लगा । फ़िर घड़ी ki और देखा...६ bajne में aadha घंटा था। बस वो जल्दी जल्दी कपड़े badlne लगा....
darvaje पर ताला lagate हुए budbudaya..."मुझे माफ़ करना माँ॥!!!!"
चिट्ठी का jvaar ठंडा पड़ चुका था....वो फ़िल्म देखने जा रहा था....रिश्ते....."
उसे आभास हो चला था कि उसका सलेक्शन नही होने वाला....हो भी तो कैसे.....आज ये पार्टी,कल वो फ़िल्म...बस यह ही ज़िन्दगी थी उसकी ...कोटा में... ।
घर...परिवार..माँ...याद तभी आया करती, जब बैंक खाते में पैसा नही आता था....खैर...खीजते हुए उसने दरवाजा खोला...निचे चिट्ठी पढ़ी थी, शायद माँ की थी..हां माँ की ही थी.......
आखिरी बार जब घर गया था,तो पढ़ाई के सिलसिले में माँ ने खूब "भजन" सुनाये थे...तब से......खैर.....
"प्यारे बिट्टू,
बहुत सारा प्यार !!
कामना है सकुशल होंगे.जब से तुम गए,तुम्हारी याद बहुत परेशां करती रही.अब तक समझ में नही आ रहा कि क्या करू??तुम्हारी चिंता सताती है. जानती hu कि तुम अब बड़े हो गए हो,मुझे तुम्हारी फिक्र नही करनी चाहिए...लेकिन,एक दम से ये भूल नही पाती कि अब तुम्हारी ज़िन्दगी में मेरे अलावा भी बहुत कुछ और है...मन अजीब सी छात्पताहत से भर उठता है.बैचेनी दिल को कसकर मुट्ठी में भींच लेती है.लेकिन होंठ भीड़ में फ़िर मुस्कुराने लगते है.मन ishwar से यही प्रार्थना करता है कि तुम हमेशा खुश रहो..तुम्हारे सपने पूरे हो।
अबकी बार जा तुम आए,तुमसे ढेर साडी बातें करना चाहती थी मैं,लेकिन हमारे तुम्हारे बिच ढेर सारी कदवहतो ने जन्मा ले लिया। तुम कुछ सुनाने को तैयार नही थे और मेरा शायद कहने का तरीका ही ग़लत था.ग़लत मैं कई जगह पर हु। मेरी सोच ग़लत है,मेरी अपेक्षाएं ग़लत है, मेरी चाहत ग़लत है- सब कुछ तो ग़लत है फ़िर सही कुछ हो भी तो कैसे !!!!
मैं बचपन में सोचा करती थी कि आदमी का भाग्य कुछ नही होता..आदमी चाहे तो अपनी म्हणत से अपने हाथ कि लकीरों को बदल सकता है.लेकिन मैं कुछ भी नही बदल सकी। ना अपनी किस्मत और न ही इन हाथ कि लकीरों में कैद अपना भविष्य और वर्तमान। तुमसे कुछ भी तो नही छिपा है। सब कुछ खुली किताब कि तरह तुम्हारे सामने है॥ बुजुर्गो कि मौत के बाद सोचा चलो तुम्हारे पापा तो है। पर जब तुम ७ साल के थे तो तुम्हारे पापा, मुझे और तुम्हे भगवन के भरोसे छोड़ किसी और के साथ....... मैंने सोचा, तुम तो हो। तुम मेरा अपना खून हो,तुमसे काफी अपेक्षाएं थी मुझे...और हैं...
खैर,सबसे पहले मैं तुमसे अपने उस दिन के व्यवहार के लिए माफ़ी चाहती हु। मुझे तुम पर हाथ नही उठाना चाहिए था। माँ-बच्चे का रिश्ता शायद बदती उमर के साथ बदल जाना चाहिए....पर माँ के लिए तो ३ साल के बिट्टू और १८ साल के सागर में कोई अन्तर नही होता न... ।शायद अब मेरा तुम पर हक ख़तम सा हो चला है, विश्वास है तुम मुझे माफ़ करोगे । हाँ ! इत अवश्य चाहती हु कि हमारे बिच स्नेह बना रहे ।
बिट्टू, मैंने जीवन में बहुत संगर्ष किया है। पुरी ज़िन्दगी मैंने दुसरो की उपेक्षा और तिरस्कार सहे है। सभी ने मेरे लिए कठिनाईयां ही पैदा की .ना jane मेरे bhitar ऐसा क्या था कि , जिसने मेरी संघर्ष क्षमता को जीवीत रखा। क्योकि मैं कायर नही थी, इसलिए मर ना सकी । और फ़िर तुम्हे किसके भरोसे छोडती ? लेकिन आज ज़िन्दगी से थकान लगने लगी है। कोई आकर्षण नही रह गया है। साँस साँस बोझिल लगने लगी है।
हाँ...तो मैं कह रही थी कि नि:संदेह तुम्हारी ज़िन्दगी में मेरी कोई जगह न हो, लेकिन इतना अवश्य चाहती हु कि तुम अपने raste से न bhatko। मेहनत करना sikho और manzil pa लो। वरना तुम ज़िन्दगी में बहुत piche रह जाओगे। यदि समय का mulya नही पहचानोगे तो कल समय तुम्हारा मूल्य gavan देगा।
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"आ अंगुली पकड़ कर तेरी, मैं तुझको चला सिखाऊ
फ़िर हाथ पकड़ना मेरा, जब बूढी हो जाऊ।"
तुम्हारी एक अजीब सी चिंता मुझे हर पल घेरे रहती है. पता नही मेरे भाग्य में और क्या लिखा है ? तुम्हारे भविष्य कि चिंता मुझे हर दम परेशान करती है, लेकिन मैं सिर्फ़ चटपटा ही पाती हु। जीवन में कभी भी, कही भी, किसी भी viprit परिस्थिति में हमेशा झूझने वाली मैं...यहीं आकर टूट जाती हु। अब तो सब कुछ इश्वर के हाथ छोड़ दिया है। शायद इसके अलवा मेरे पास कोई चारा भी नही रहा।
इतनी साड़ी नसीहतें पढ़ कर तुम्हे ज़रूर गुस्सा आएगा,लेकन ये तुम्हारी माँ नही लिख रही...भरती शर्मा लिख रही है। मेरे और तुम्हारे बिच का रिश्ता अगर सहज न रह पाए, तो मुझे तुम्हारी माँ कहलवाने का कोई हक नही ... । फ़िर भी मैं तुम्हारे हल पल, हर क्षण साथ हूँ। तुम्हारे अच्छे में भी और तुम्हारे बुरे मैं भी।
मेरे रहते तुम्हे कभी अभाव या परेशानी नही देखनी पड़ेगी। ये एक वादा है मेरा। तुम हमेशा मुझे अपने आस-पास पाओगे। हमेशा खुश रहो । मैं चाहती हु कि मैं अपना आत्मा सम्मान बनाये रख पौ, तुम मुझे tna जीवन jine layak doge।
मेरी shubh kamnayein,प्यार dular, आशीर्वाद सभी पर आख़िर तुम्हारा ही तो हक है...
भरती शर्मा।"
sanghya shunya हो सागर उस चिट्ठी को देखे जा रहा था, जो ख़तम हो कर भी शायद shesh थी...शब्दों के ज्वर बार bar उसके मन को उद्वेलित कर रहे थे। तभी बहार दरवाजे पर दस्तक हुई, bahar कुछ दोस्त खड़े थे...."सागर ॐ सिनेप्लेक्स में नई फ़िल्म लगी है.......रिश्ते........चलेगा देखने....."
सागर कुछ देर सोचने लगा । फ़िर घड़ी ki और देखा...६ bajne में aadha घंटा था। बस वो जल्दी जल्दी कपड़े badlne लगा....
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