Wednesday, February 29, 2012

यो म्हारो उदियापुर है...!

यो म्हारो उदियापुर है...!

उदयपुर में एक खास किस्म की नफासत है जो दिल्ली, जयपुर या किसी और शहर में नहीं मिलती. केवल इमारतें या बाग-बगीचें ही नहीं,बल्कि उदयपुरी जुबां भी ऐसी है कि कोई बोले तो लगता है कानों में शहद घोल दिया हो. केवल राह चलते लोग ही नहीं बल्कि इस शहर में तो सब्जी बेचने वाले हो या सोना-चांदी बेचने वाले  सब इसी खास जुबान में ही बात करते है. "रिपिया कई रुखड़ा पे लागे जो थारे ठेला री अणि  हुगली साग ने पांच रिपिया पाव लूँ.. तीन में देनी वे तो देई जा भाया...!" जब बनी ठनी छोटी चाची जी सब्जी वाले से कुछ इस तरह भाव-ताव करती है तो फक्र महसूस होता है  अपनी मेवाडी पर. कई बार तो परकोटे के भीतर माहौल कुछ ऐसा हो जाता है कि अजनबी यही सोचकर कुछ बोलने से डरते है कि वह सबसे अलग दिखने लगेंगे.
केवल उदयपुर के मूल निवासियों या राजपूतों ने ही नहीं बल्कि शहर की इस तहज़ीब भरी जुबां को अन्य समुदायों ने भी अपने जीवन में समाहित किया है.. "म्हारा गाबा लाव्जो मम्मी, मुं हाप्डी रियो हूँ " ये शब्द सुने मैंने "बड़ी होली" मोहल्ले में रहने वाले एक ईसाई बच्चे के मुह से. यकीन मानिए,इतना सुनने  के बाद कोई नहीं कह सकता कि ये ईसाई है. उस बच्चे के मुह से मेवाडी लफ्ज़ इस खूबसूरती और नरमाई लिए निकल रहे थे कि लगा मानो, वो मेवाडी तहज़ीब का चलता फिरता आइना हो.
उदयपुर के कूंचों में आप मेवाडी ज़बान सुन सकते हैं. मशहूर मांड गायिका मांगी बाई के मुह से "पधारो म्हारे देस" सुनने के लिए दस दस कोस के लोग लालायित रहते है. यहाँ के हर लोक कलाकार, कवि सभी में कहीं न कहीं मेवाडी अंदाज़ ज़रूर झलकता है. और तब  " पूरी  छोड़ ने आधी खानी, पण मेवाड़ छोड़ने कठेई नि जानी" कहावत सार्थक हो उठती है. . कवि "डाडम चंद डाडम" जब अपनी पूरी रंगत में आकर किसी मंच से गाते हैं- "मारी बाई रे कर्यावर में रिपिया घना लागी गिया.. इ पंच तो घी यूँ डकारी गिया जू राबड़ी पि रिया वे..." तो माहौल में ठहाका गूँज उठता है.

बात राबड़ी की निकली तो दूर तलक जायेगी...

बचपन में सुना करते थे कि अगर सुबह सुबह एक बड़ा कटोरा भरके देसी मक्की की राब पी ली जाये तो दोपहर तक भूख नहीं लगती. जो लोग गाँव से ताल्लुक रखते है, उन्हें वो दृश्य ज़रूर याद आता होगा, जब आँगन के एक कोने में या छत पर जल रहे चूल्हे पर राबड़ी के  तोलिये (काली बड़ी मटकी,जिसे चूल्हे पर चढ़ाया जाता था)से भीनी भीनी खुशबु उठा करती थी और घर के बुज़ुर्ग चिल्लाते थे.. "अरे बराबर हिलाते रहना, नहीं तो स्वाद नि आएगा." और देसी लफ़्ज़ों में कहे तो "राब औजी जाई रे भूरिया" ..
वो भी गजब के  ठाठ थे राबड़ी के, जिसके बिना किसी भी समय का भोजन अधूरा माना जाता था. मक्की की उस देसी राब का स्वाद अब बमुश्किल मिल पाता है. होटलों में राब के नाम पर उबले मक्की के दलिये को गरम छाछ में डालकर परोस देते है.
"दाल बाटी चूरमा- म्हारा काका सुरमा "
चूल्हे पर चढ़ी राब और निचे गरम गरम अंगारों पर सिकती बाटी. नाम सुनने भर से मुह में पानी आ जाता है. पहले देसी उपलों के गरम अंगारों पर सेको, फिर गरम राख में दबा दो.. बीस-पच्चीस मिनट बाद बहार निकाल कर.. हाथ से थोड़ी दबाकर छोड़ दो घी में..  जी हाँ, कुछ ऐसे ही नज़ारे होते थे चंद बरसों पहले.. अब तो बाफला का ज़माना है. उबालो-सेको-परोसो.. का ज़माना जो आ गया है. अब घर घर में ओवन है, बाटी-कुकर है. चलिए कोई नहीं. स्वाद वो मिले न मिले..बाटी मिल रही है, ये ही क्या कम है !!
अब शहर में कही भी उस मेवाडी अंदाज़ का दाल-बाटी-चूरमा नसीब नहीं. एक-आध रेस्टोरेंट था तो उन्होंने भी क्वालिटी से समझौता कर लिया. कही समाज के खानों में बाटी मिल जाये तो खुद को खुशकिस्मत समझते हैं. और हाँ, बाटी चुपड़ने के बाद बचे हुए घी में हाथ से बने चूरमे का स्वाद... कुछ याद आया आपको !
आधी रात को उठकर जब पानी की तलब लगती है तो दादी का चिर परिचित अंदाज़ सुनने को मिलता है.. "बाटी पेट में पानी मांग री है"  चेहरे पर मुस्कान आ जाती है.
"मैं मेवाड़ हूँ."
मोतीमगरी पर ठाठ से विराजे महाराणा प्रताप सिंह जी, चेटक सर्किल पर रौब से तीन टांग पर खड़ा उनका घोडा चेटक... जगदीश मंदिर की सीढियाँ  चढ़ता फिरंगी और अंदर जगन्नाथ भगवान के सामने फाग गाती शहर की महिलाएं.. गणगौर घाट के त्रिपोलिया दरवाज़े से झांकती पिछोला.. नेहरु गार्डन में मटके से पानी पिलाती औरत की मूर्ति, सहेलियों की बाड़ी मे छतरी के ऊपर लगी चिड़िया के मुह से गिरता फिरता पानी.. गुलाब बाग में चलती छुक छुक रेल, सुखाडिया सर्किल पर इतनी बड़ी गेहूं की बाली... लेक पेलेस की पानी पर तैरती छाया, दूर किसी पहाड़ से शहर को आशीर्वाद देती नीमच माता... जी हाँ ये हमारा उदयपुर है.
शहर की इमारतों का क्या कहना.. मेवाड़ के इतिहास की ही तरह ये भी भव्य है..अपने में एक बड़ा सा इतिहास समेटे हुए. पिछोला किनारे से देखने पर शहर का मध्य कालीन स्वरुप दिखता है. यूँ तो उदयपुर को कहीं से भी देखो,ये अलग ही लगता है पर पिछोला के नज़ारे का कोई तोड़ नहीं. एक तरफ गर्व से सीना ताने खड़ा सिटी पेलेस.. तो दूसरी तरफ होटलों में तब्दील हो चुकी ढेर सारी हवेलियाँ. जाने कितने राजपूतों के आन-बाण शान पर खड़ा है ये शहर..
शाम के समय मोती मगरी पर "साउंड और लाईट शो" चलता है. यहीं पर स्थित मोती महल में प्रताप अपने कठिनाई भरे दिनों में कुछ दिन ठहरे थे. खंडहरों पर जब रौशनी होती है और स्वर गूंजता है..."मैं मेवाड़ हूँ" तो यकीन मानिये आपका रोम रोम खड़ा हो जाता है. कुम्भा, सांगा, प्रताप, मीरा, पन्ना, पद्मिनी... जाने कितने नाम गिनाये... तभी माहौल में महाराणा सांगा का इतिहास गूँजता है. कहते ही उनका जन्म तो ही मुग़लों को खदेड़ने के लिए हुआ था. उनकी लहराती बड़ी बड़ी मूंछें,गहरे अर्थ लिए शरीर के अस्सी घाव, लंबा और बलिष्ठ बदन उनके व्यक्तित्व को और अधिक प्रभावशील बना देता था. और तभी मुझे मेरठ  के मशहूर वीर रस कवि "हरी ओम पवार" के वे शब्द याद आते है... " अगर भारत के इतिहास से राजस्थान निकाल दिया जाये, तो इतिहास आधा हो जाता है.. पर राजस्थान से अगर मेवाड़ को निकाल दिया जाये, तो कुछ नहीं बचता !"

इसी बीच घूमते घूमते आप देल्ही गेट पहुच जाये और "भोला " की जलेबी का स्वाद लेते लेते अगर आपको ये शब्द सुनने को मिल जाये.. " का रे भाया..घनो हपड हापड जलेबियाँ चेपी रियो हे.. कम खाजे नि तो खर्-विया खावा लाग जायगा." तो यकीन मानिये आप ने शहर को जी लिया... वैसे उदयपुर निहायत ही खूबसूरत शहर है, और जब हम इसकी जुबान, खान पान की  बात छेड़ देते है तो बहुत कुछ आकर्षक चीज़ें हमसे छूट जाती है..

Tuesday, February 28, 2012

हिंदू है...... इसे जाने दो !


दस साल पहले गोधरा में ट्रेन जलाए जाने के बाद भड़के दंगे को कवर करने गए बीबीसी संवाददाता रेहान फज़ल को किस तरह दंगाइयों की भीड़ का सामना करना पड़ा और किस तरह उन्होंने अपनी जान बचाई, पढि़ए उनके लिखे इस संस्‍मरण में।


27 फ़रवरी 2002 की अलसाई दोपहर. मेरी छुट्टी है और मैं घर पर अधलेटा एक किताब पढ़ रहा हूँ. अचानक दफ़्तर से एक फ़ोन आता है. मेरी संपादक लाइन पर हैं. 'अहमदाबाद से 150 किलोमीटर दूर गोधरा में कुछ लोगों ने एक ट्रेन जला दी है और करीब 55 लोग जल कर मर गए हैं.' मुझे निर्देश मिलता है कि मुझे तुरंत वहाँ के लिए निकलना है. मैं अपना सामान रखता हूँ और टैक्सी से हवाई अड्डे के लिए निकल पड़ता हूँ. हवाई अड्डे के पास भारी ट्रैफ़िक जाम है.अफ़गानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करज़ई का काफ़िला निकल रहा है. मैं देर से हवाई अड्डे पहुँचता हूँ. जहाज़ अभी उड़ा नहीं हैं लेकिन मुझे उस पर बैठने नहीं दिया जाता. मेरे लाख कहने पर भी वह नहीं मानते. हाँ यह ज़रूर कहते हैं कि हम आपके लिए कल सुबह की फ़्लाइट बुक कर सकते हैं. अगले दिन मैं सुबह आठ बजे अहमदाबाद पहुँचता हूँ. अपना सामान होटल में रख कर मैं अपने कॉलेज के एक दोस्त से मिलने जाता हूँ जो गुजरात का एक बड़ा पुलिस अधिकारी है. वह मेरे लिए एक कार का इंतज़ाम करता है और हम गोधरा के लिए निकल पड़ते हैं. मैं देखता हूँ कि प्रमुख चौराहों पर लोग धरने पर बैठे हुए हैं. मेरा मन करता है कि मैं इनसे बात करूँ. लेकिन फिर सोचता हूँ पहले शहर से तो बाहर निकलूँ.अभी मिनट भर भी नहीं बीता है कि मुझे दूर से करीब 200 लोगों की भीड़ दिखाई देती है. उनके हाथों में जलती हुई मशालें हैं. वे नारे लगाते हुए वाहनों को रोक रहे हैं. जैसे ही हमारी कार रुकती है हमें करीब 50 लोग घेर लेते हैं. मैं उनसे कुछ कहना चाहता हूँ लेकिन मेरा ड्राइवर इशारे से मुझे चुप रहने के लिए कहता है. वह उनसे गुजराती में कहता है कि हम बीबीसी से हैं और गोधरा में हुए हमले की रिपोर्टिंग करने वहाँ जा रहे हैं. काफ़ी हील हुज्जत के बाद हमें आगे बढ़ने दिया जाता है. डकोर में भी यही हालात हैं. इस बार हमें पुलिस रोकती है. वह हमें आगे जाने की अनुमति देने से साफ़ इनकार कर देती है. मेरा ड्राइवर गाड़ी को बैक करता है और गोधरा जाने का एक दूसरा रास्ता पकड़ लेता है.

छुरे से वार
 
जल्दी ही हम बालासिनोर पहुँच जाते है जहाँ एक और शोर मचाती भीड़ हमें रोकती है. जैसे ही हमारी कार रुकती है वे हमारी तरफ़ बढ़ते हैं. कई लोग चिल्ला कर कहते हैं,'अपना आइडेन्टिटी कार्ड दिखाओ.' 
मैं अपनी आँख के कोने से देखता हूँ मेरे पीछे वाली कार से एक व्यक्ति को कार से उतार कर उस पर छुरों से लगातार वार किया जा रहा है. वह ख़ून से सना हुआ ज़मीन पर गिरा हुआ है और अपने हाथों से अपने पेट को बचाने की कोशिश कर रहा है. उत्तेजित लोग फिर चिल्लाते हैं, 'आइडेन्टिटी कार्ड कहाँ है?' मैं झिझकते हुए अपना कार्ड निकालता हूँ और लगभग उनकी आँख से चिपका देता हूँ. मैंने अगूँठे से अंग्रेज़ी में लिखा अपना मुस्लिम नाम छिपा रखा है. हमारी आँखें मिलती हैं. वह दोबारा मेरे परिचय पत्र की तरफ़ देखता है. शायद वह अंग्रेज़ी नही जानता. तभी उन लोगों के बीच बहस छिड़ जाती है. एक आदमी कार का दरवाज़ा खोल कर उसमें बैठ जाता है और मुझे आदेश देता है कि मैं उसका इंटरव्यू रिकार्ड करूँ. मैं उसके आदेश का पालन करता हूँ. वह टेप पर बाक़ायदा एक भाषण देता है कि मुसलमानों को इस दुनिया में रहने का क्यों हक नहीं है. अंतत: वह कार से उतरता है और उसके आगे जलता हुआ टायर हटाता है.   


कांपते हाथ
मैं पसीने से भीगा हुआ हूँ. मेरे हाथ काँप रहे है. अब मेरे सामने बड़ी दुविधा है. क्या मैं गोधरा के लिए आगे बढ़ूँ जहाँ का माहौल इससे भी ज़्यादा ख़राब हो सकता है या फिर वापस अहमदाबाद लौट जाऊँ जहाँ कम से कम होटल में तो मैं सुरक्षित रह सकता हूँ.लेकिन मेरे अंदर का पत्रकार कहता है कि आगे बढ़ो. जो होगा देखा जाएगा. सड़कों पर बहुत कम वाहन दौड़ रहे हैं. कुछ घरों में आग लगी हुई है और वहाँ से गहरा धुआं निकल रहा है. चारों तरफ़ एक अजीब सा सन्नाटा है. मैं सीधा उस स्टेशन पर पहुँचता हूँ, जहाँ ट्रेन पर आग लगाई गई थी. पुलिस के अलावा वहाँ पर एक भी इंसान नहीं हैं. चारों तरफ़ पत्थर बिखरे पड़े हैं. एक पुलिस वाला मुझसे उस जगह को तुरंत छोड़ देने के लिए कहता है.मैं पंचमहल के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक राजू भार्गव से मिलने उनके दफ़्तर पहुँचता हूँ. वह मुझे बताते हैं कि किस तरह 7 बजकर 43 मिनट पर जब साबरमती एक्सप्रेस चार घंटे देरी से गोधरा पहुँची, तो उसके डिब्बों में आग लगाई गई. वह यह भी कहते हैं कि हमलावरों को गिरफ़्तार कर लिया गया है और पुलिसिया ज़ुबान में स्थिति अब नियंत्रण में है. मेरा इरादा गोधरा में रात बिताने का है लेकिन मेरा ड्राइवर अड़ जाता है. उसका कहना है कि यहाँ हालात ओर बिगड़ने वाले हैं. इसलिए वापस अहमदाबाद चलिए.


टायर में पंक्चर
 हम अपनी वापसी यात्रा पर निकल पड़ते हैं. अभी दस किलोमीटर ही आगे बढ़े हैं कि हम देखते हैं कि एक भीड़ कुछ घरों को आग लगा रही है. मैं अपने ड्राइवर से कहता हूँ, स्पीड बढ़ाओ. तेज़.... और तेज़!
वह कोशिश भी करता है लेकिन तभी हमारी कार के पिछले पहिए में पंक्चर हो जाता है. ड्राइवर आनन फानन में टायर बदलता है और हम आगे बढ़ निकलते हैं. हम मुश्किल से दस किलोमीटर ही और आगे बढ़े होंगे कि हमारी कार फिर लहराने लगती है. इस बार आगे के पहिए में पंक्चर है. हम बीच सड़क पर खड़े हुए हैं.... बिल्कुल अकेले. हमारे पास अब कोई अतिरिक्त टायर भी नहीं है. ड्राइवर नज़दीक के एक घर का दरवाज़ा खटखटाता है. दरवाज़ा खुलने पर वह उनसे विनती करता है कि वह अपना स्कूटर कुछ देर के लिए उसे दे दें ताकि वह आगे जा कर पंक्चर टायर को बनवा सके.



क्रेडिट कार्ड ने जान बचाई

जैसे ही वह स्कूटर पर टायर लेकर निकलता है, मैं देखता हूँ कि एक भीड़ हमारी कार की तरफ़ बढ़ रही है. मैं तुरंत अपना परिचय पत्र, क्रेडिट कार्ड और विज़िटिंग कार्ड कार की कार्पेट के नीचे छिपा देता हूँ. यह महज़ संयोग है कि मेरी पत्नी का क्रेडिट कार्ड मेरे बटुए में है. मैं उसे अपने हाथ में ले लेता हूँ. माथे पर पीली पट्टी बाँधे हुए एक आदमी मुझसे पूछता है क्या मैं मुसलमान हूँ. मैं न में सिर हिला देता हूँ. मेरे पूरे जिस्म से पसीना बह निकला है. दिल बुरी तरह से धड़क रहा है. वह मेरा परिचय पत्र माँगता है. मैं काँपते हाथों से अपनी पत्नी का क्रेडिट कार्ड आगे कर देता हूँ. उस पर नाम लिखा है रितु राजपूत. वह इसे रितिक पढ़ता है. अपने साथियों से चिल्ला कर कहता है, 'इसका नाम रितिक है. हिंदू है.... हिंदू है... इसे जाने दो.'! इस बीच मेरा ड्राइवर लौट आया है. वह इंजन स्टार्ट करता है और हम अहमदाबाद के लिए निकल पड़ते हैं बिना यह जाने कि वह भी सुबह से ही इस शताब्दी के संभवत: सबसे भीषण दंगों का शिकार हो चुका है.
(साभार - www.bbchindi.com)

Monday, February 13, 2012


है फ़र्ज़ तुझ पे फ़क़त बंदा-ए-खुद की तलाश...
खुदा की फ़िक्र न कर वह मिला, मिला न मिला...

Saturday, February 11, 2012

....समझा तो केवल एक औरत!

.समझा तो केवल एक औरत!

कई बार लोग कहते हैं ज़माना बदल गया है। क्या वाकई ऐसा हुआ है? शायद नहीं। मानसिकता बदलने को ज़माने के बदलाव से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। मानसिकता में बदलाव ने आज समाज को कई रास्तों वाले चौराहे पर ला खडा कर दिया है। एक बदलाव जिसका ज़िक्र सबसे करना ज़रूरी, वह है महिलाओं को लेकर पुरुष समाज की सोच में बदलाव का। कहने को तो औरत के कई रूप हैं, माँ-बेटी-बहन से लेकर पत्नी तक, मगर इन रिश्तों से इतर महिलाओं को केवल औरत समझा जाने की परम्परा और मानसिकता ने समाज को विद्रूप बना दिया है। पूरे देश के तमाम हिस्सों के हालात भी कमतर नहीं हैं।

जिस देश ने नारी को देवी का दर्ज़ा दिया था वहाँ अब उन्हें केवल औरत से ज़्यादा कुछ नहीं समझा जा रहा। देश के महत्वपूर्ण पदों पर महिलाओं की मौजूदगी के बावजूद आज ऍन केन्द्र सरकार की नाक के नीचे, जिस दिल्ली की सुरक्षा का ज़िम्मा केन्द्रीय गृह मंत्रालय के पास है, महिलायें महफूज़ नहीं है। हाल के समय में अकेले दिल्ली के आंकड़ों पर गौर करें तो भयावह चित्र सामने आता है। दुधमुंही बच्चियों से लेकर परदादी की उम्र तक की महिलाओं के साथ लगातार घट रहे वीभत्स हादसे किसी की आँखें खोलने के लिए नहीं, बल्कि खुली आँखें नम करने या उन्हें अपने हाथों से फोड़ लेने के लिए प्रेरित करते हैं। ऐसी कई घटनाओं की बानगी सामने है, जिसमें समाज की नपुंसकता साफ़ दिखाई देती है। क्या वाकई हम अपने घर की सुरक्षा के मामले में अपना पुरुषत्व खो बैठे हैं? देश के सर्वोच्च शक्तिशाली पदों पर दमदार महिलायें काबिज हैं, शायद उन्हें अपनी ही कौम की दुर्दशा का भान नहीं है, या हो सकता है कि ज़बरदस्त सुरक्षा वाली उनकी अट्टालिकाओं के कंगूरों के उस पार उन तक यह तस्वीरें नहीं पहुँच पाती हों। एक मासूम-सी जान ‘फलक’ एम्स में जिंदगी और मौत से जूझ रही है। ठीक हो भी गई तो उसका भविष्य क्या होगा, बताना बहुत मुश्किल है। इस बच्ची की कहानी ने देश को झकझोर कर रख दिया है। क्या वाकई इतने निर्मम हो सकते हैं माता-पिता, या पैसे की हवस ने उन्हें इतना अंधा कर दिया है कि वे अपने कलेजे के टुकड़े को देह की मंडी में बेच सकते हैं। हालांकि यह कोई एक फलक की कहानी नहीं है। ऐसी अगणित लड़कियां हैं जिनके साथ हर रोज अमानवीय अत्याचार होता है। कुछ को बमुश्किल न्याय मिल भी जाता है पर अधिकांश सिसकियों में जिंदगी गुजार देती हैं। आधी आबादी की बदहाली के बारे में जनसंख्या संबंधी सरकारी आंकड़े जितने चौंकानेवाले हैं, कहीं उतनी ही भयावह है लोगों की मानसिकता। देश में नारी सशक्तीकरण की चाहे जितनी बातें होती हों, लेकिन हकीकत इसके बिलकुल विपरीत है। बेशक आज दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में महिलाओं ने हर बड़े मोर्चे संभाल रखे हों लेकिन आजादी के बाद से देश में महिला-पुरु ष अनुपात में तेजी से गिरावट आई है। आंकड़ों के मुताबिक देश में 1000 बालकों के मुकाबले केवल 914 बालिकाएं हैं। एक तरफ जहां हमारे वेद और शास्त्रों में नारी को पूजे जाने का उपदेश दिया गया है, वहीं हमारे मौजूदा पितृसत्तात्मक समाज में कहीं बेटियों को कोख में ही मार दिया जाता है, तो कहीं सरेआम उसकी अस्मत को बेरहमी से कुचला जाता है। कहीं पुरु ष मनोग्रंथि के चलते, तो कहीं समाज में अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शित करने के लिए स्त्री के शरीर को जागीर समझकर उस पर जुल्म ढाए जाते हैं। समाज पर पुरुष की प्रधानता का इससे बेहतर प्रमाण और क्या हो सकता है कि जितनी भी गालियां प्रचलित हैं वह मां और बहन के अपमान से ही संबंधित हैं। दो साल की मासूम या अस्सी साल की वृद्धा का दोष क्या केवल इतना है कि वे अपनी सुरक्षा खुद कर पाने में नाकाम होती हैं? राजनीति करने वाले भी ऐसे मौकों पर अपनी रोटियां सेंकने का कुत्सित प्रयास करते हैं, लेकिन जब रोटी जलने लगती है तो वे भी पीछे हट जाते हैं। आधी आबादी का दर्ज़ा प्राप्त महिला तबका खुद को आज लुटा हुआ महसूस करता होगा….सामाजिक….राजनीतिक…शारीरिक…..सभी क्षेत्रों में।
(आभार: उपदेश सक्सेना, दिल्ली)

Tuesday, February 07, 2012

"खुशियों का दौर भी कभी आ ही जायेगा...!!
ग़म भी तो मिल रहे हैं, तमन्ना किये बगैर ...!!"
 


महकती रात शराबों से प्यार करता था
उन दिनों मैं भी गुलाबों से प्यार करता था ..


हज़ारों ऐब हैं मुझमें, नहीं कोई हुनर बेशक
मेरी ख़ामी को तू ख़ूबी में यूँ तब्दील कर देना
मेरी हस्ती है इक खारे समंदर-सी मेरे मौला!
तू अपनी रहमतों से इसको मीठी झील कर देना



मैं खुल के के हंस तो रहा हूँ फ़कीर होते हुए ..
वो मुस्कुरा भी ना पाया अमीर होते हुए...    


एक चिराग सा दिन रात जलता रहता हूँ..
मैं थक गया हूँ, हवा से कहो, अब बुझा दे मुझे..
बहुत दिनों से मैं इन पत्थरों में पत्थर हूँ..
कोई तो आये ज़रा देर को रुला दे मुझे...   

(आभार: मेरे कुछ अपने, जो मेहनत करके खुबसूरत पंक्तियाँ गढ़ते हैं...)


Saturday, February 04, 2012

कोई तो ध्यान दो इधर !!

दुनियाभर के पर्यटक उदयपुर क्यों आते है ?? जवाब आसान है. यूँ तो बहुत कुछ है उदयपुर में देखने, महसूस करने के लिए पर मुख्यतः यहाँ की झीलें निहारने के लिए विदेशी पर्यटक और हमारे अपने देशवासी भी बार बार मेवाड़ का रुख करते है.  किन्तु आज अगर झीलों की दशा पर गौर करें तो पाएंगे कि शायद हम लोग हमारी विरासत संभाल नहीं पा रहे. मेवाड़ के महाराणाओ ने भी नहीं सोचा होगा कि उनके सपनो की कालांतर में हकीकत कुछ और होगी. अगर आप हमारी बात से इत्तेफाक नहीं रखते तो चलिए आज आपको शहर की झीलों का भ्रमण करा ही देते है.

शुरुआत करते हैं फतहसागर से. मुम्बईया बाजार में आपका स्वागत है.  आप आराम से किनारे पर बैठिये. ब्रेड पकोडे का आनंद लीजिए.. यहाँ की कुल्हड़ काफी का स्वाद स्वतः मुह में पानी ला देता है.  पर गलती से भी नीचे  झील में झाँकने की भूल मत कीजिये. आपको शहर की खूबसूरती पर पहला पैबंद नज़र आ जायेगा. जी हाँ.. इतनी गन्दगी.. पानी में इतनी काई. न तो नगर परिषद की टीम यहाँ नज़र आती है न ही झील हितैषी मंच... ! वैसे आप भी कम नहीं है.. याद कीजिये, कितनी बार काफी गटकने के बाद आपने कुल्हड़ या थर्मोकोल गिलास कचरा  पात्र में डाला.. न कि झील में.. अजी कुल्हड़ तो मिट्टी का है, पानी में मिल जायेगा...बेहूदा जवाब नहीं है ये ? आगे बढ़कर फतहसागर के ओवरफ्लो गेट को तो मत ही देखिएगा. यहाँ गन्दगी चरम पर है. 

पिछोला घूमे है कभी ? सच्ची !! चलिए एक बार फिर पिछोला की परिक्रमा करते है . कितना खूबसूरत दरवाज़ा है. नाम चांदपोल. वाह ! बेहतरीन पुल. पर गलती से भी चांदपोल के ऊपर से गुज़रते वक्त दायें-बाएं पिछोला दर्शन मत कीजियेगा.. आपको मेरी कसम. अब मेरी कसम तोड़कर देख ही लिया तो थोडा दूर लेक पेलेस को देखकर अपनी शहर की खूबसूरती पर मुस्कुरा भर लीजिए, पुल से एकदम नीचे या यहाँ-वहाँ बिलकुल नहीं देखना.. वर्ना पड़ोस की मीरा काकी, शोभा भुआ घर के तमाम कपडे-लत्ते धोते वहीँ  मिल जायेगी. आप उनको पहचान लोगे, मुझे पता है. पर वो आपको देखकर भी अनदेखा कर देगी..!जैसे आपको जानती ही नहीं.  चलिए उनको कपडे धोने दीजिए. आप तब तक पानी पर तैर रही हरी हरी काई और जलकुम्भी को निहारिए.
झीलों के शहर की तीसरी प्रमुख झील स्वरुप सागर की तो बात ही मत कीजिये. पाल के नीचे लोहा बाजार में जितना कूड़ा-करकट न होगा,उतना तो झील में आपको यूँ ही देखने को मिल जायेगा. याद आया !वो मंज़र..जब झीलें भर गयी थी और इसी स्वरुप सागर के काले किवाडों से झर झर बहता सफ़ेद झक पानी देखा था. पर फ़िलहाल पानी मेरी आँखों में आ गया.. न न झील के हालात को देखकर नहीं, पास ही में एक मोटर साइकिल  रिपेयरिंग की दूकान के बाहर से उठते धुएं ने मेरी आँखों से पानी बहा ही दिया.

कुम्हारिया तालाब  और रंग सागर . क्या ... मैंने ठीक से सुना नहीं...आपको नहीं पता कि ये कहाँ है ! अजी तो देर किस बात की. अम्बा माता के दर्शन करने के पश्चात वहीँ  अम्बा पोल से  अंदरूनी शहर में प्रवेश करते है (शादी की भीड़ को चीरकर अगर पहुच गए तो) तो पोल के दोनों तरह जो  दिखाई दे रहा  है, वो दरअसल झील है. ओह..याद आ गया आपको. "पर पानी कहाँ है. !" कसम है आपको भैरूजी बावजी की. ऐसा प्रश्न मत पूछिए. ये झील ही है पर देखने में झील कम और "पोलो ग्राउंड " ज्यादा लगते है. वजह साफ़, पानी कम है और जलकुम्भी ज्यादा. चलिए अच्छा है. अतीत में ही सही, पर है तो झील  ही न. 
बस सवाल यही है.. क्या हम सिर्फ माननीया सभापति महोदया के भरोसे बैठेंगे... या इस बात का इन्तेज़ार करेंगे कि कोई रहनुमा आएगा झीलों का रूप सुधारने  के लिए... !! क्या हम कभी अपने सामाजिक सरोकारों के प्रति भी सजग होंगे. क्या सोचना है आपका ... मुझे सुनाई नहीं दे रहा. ज़रा लिखकर बताइए, ताकि अमिट रहे..और हाँ,लिखने के बाद कहीं  आप ने मनाकर दिया, , तो हम आपको पकड़ लेंगे. आपके लिखे कमेन्ट के माध्यम से.... ज़रा सोचिये.